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श्री हिमांशु जोशी
बर्फ से ढकी एक झील : एक साहित्यकार
बर्फीली पहाड़ों से घिरी एक झील । हिम की सफ़ेद झीनी से ढकी रहने के कारण जिसकी गहनता का अंकन सरल नहीं । किसी हद तक सम्भव नहीं कहा जाय तो सम्भवतः अत्युक्ति न होगी।
कहते हैं लोगों ने अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार चट्टानें खुरच-खुरच कर, मन के मुताबिक नाना प्रकार की राहें निकाल लीं। कुछ रहस्य तक पहुँचे, कुछ नहीं पहुँचे । कुछों ने गगन-भेदी उद्घोष किया-हाँ, वे पहुँचे, वे समझे । हो सकता है कुछ समझ भी गए हों । कुछ न भी समझे हों । वस्तुतः दोनों ने दो प्रोर-छोर थाम लिए।
___ धवल स्वच्छ खादी के वस्त्र, हौले-हौले बोलना, हौले-हौले चलना, हौले-हौले सोचना । लेकिन सोचना हर घड़ी, हर समय । अधखिचड़ी बाल , माथे की मोटीमोटी सिलवटें, धोती कुरता और लोई । कुर्ते में हल्के से काले बटन, जेबी घड़ी (शायद अब हाथ की हो गई है), आँखों पर काले फ्रेम का चश्मा-जो बाबा आदम के जमाने से चला आ रहा है। करघे के कपड़ों के साथ घर में किसी ने नाइलोन के रंगीन मौजे खरीद कर धर दिए हैं न । बस, अब दिनों, महीनों वे ही चलेंगे। बारबार विचार आता है-ये अच्छे नहीं। पर जब सामने रख दिये तो फिर । पसन्द अपनी नहीं, दूसरों की जो है । क्या किया जाय । गांधी बाबा का अहिंसक मार्ग जो अपनाया है।
बहुत वर्ष पहले एक कहानी पढ़ी थी-खेल । लेखक का नाम था जैनेन्द्र कुमार । तब अच्छी लगी थी शायद । बालू के नन्हें-नन्हें घर तब अच्छे लगते थे । अब बचपन के खेलों की तरह 'खेल' भी भूल गया । हाँ, वह याद है-'कागा चुन-चुन खाइयो · ·ोह जाह्नवी।' अबोध कील की तरह मन में ऐसी गड़ी कि बस गड़ी रही। फिर जमूरे से भी निकाले निकली नहीं । टूट अवश्य गई । लेकिन टूटे काँटे का तरह..। मैं दिनों तक उसके बारे में सोचता रहा । सोचता रहा–ोह, कैसी अबूझ फूहड़ लड़की । 'पिया मिलन की प्रास.। और अनगिनत टूटते कौवे...।।
हूँ, यह भी कोई कहानी है । आदमी को जो परेशान कर दे । साहित्य का पर्याय क्या परेशानी है । फिर क्या यह साहित्य है । वस्तुतः कुछ और है । मेरा मन
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