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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व कारण उनके उपन्यासों में चरित्रों की भरमार नहीं दिखायी देती और पात्रों की अल्प संख्यकता के कारण भी उनके उपन्यासों में वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता रही है ।
क्रांतिकारिता तथा अातंकवादिता के तत्व भी जैनेंद्र के उपन्यासों के कथानक का महत्वपूर्ण आधार रहे हैं । उनके सभी उपन्यासों के प्रमुख पुरुष पात्र सशस्त्र क्रांति में प्रास्था रखते हैं । वाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना लिये होकर भी ये अपने अन्तर में विध्वंसक वृत्ति लिये होते हैं। उनका यह विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेम विषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रया के फलस्वरूप निर्मित होता है। इसी कारण जब वह किसी नारी का थोड़ा भी आश्रय, सहानुभूति या प्रेम पाता है, तब टूट कर गिर पड़ता है और बाह्य रूप से भी कोमल बन जाता है।
जैनेन्द्र के उपन्यासों में कथा का विकास त्रिकोणात्मक सूत्र के आधार पर होता है । एक प्रधान पात्र और एक प्रधान पात्री को लेकर मुख्य कथा सूत्र का विकासशील होना जैनेन्द्र के किसी उपन्यास में नहीं मिलता । उनके उपन्यासों में प्रायः प्रधान पात्र और प्रधान पात्री के अतिरिक्त एक तीसरा पात्र और भी होता है, जिसका कथा के विकास में उतना ही महत्वपूर्ण योग रहता है । यही कारण है कि उनमें कथानक का खिंचाव तीन ओर से रहता है और इस त्रिकोण के मूल सूत्रों के पारस्परिक संघर्ष से उसे विकास की दिशायें मिलती हैं। इस प्रकार से जैनेन्द्र के उपन्यासों के कथानक के शिल्प-रूपों से सम्बन्ध रखने वाली विशेषताओं को साधारणतः दो दृष्टियों से देखा जा सकता है । एक तो उनके उपन्यासों की सामान्य शिल्पगत विशेषतायें और दूसरे असामान्य विशेषतायें। ऊपर जिस त्रिकोणात्मक संघर्ष के फलस्वरूप होने वाले कथा-विकास की चर्चा की गयी है, वह उनके उपन्यासों की एक सामान्य शिल्पगत विशेषता है, जो उनके अधिकांश उपन्यासों में समान रूप से विद्यमान है।