Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 217
________________ जैनेन्द्र जी के साहित्य-सिद्धान्त १६९ भी बड़ा आदमी माना जाता हो ...''सफल उपन्यास नहीं लिख सकता । एकदम जरूरी है कि वह कुछ अबोध भी हो, मिस्टिक हो।' __ यथार्थ और आदर्श के सम्बन्ध में जैनेन्द्र जी की मान्यताएं प्रथम दर्शन में विरोध-ग्रस्त-सी दिखाई देती हैं । ऐसा लगता है कि वे कभी तो यथार्थ को महत्व देकर ग्रादर्श का तिरस्कार कर रहे हैं और कभी इसके विपरीत । उदाहरणार्थ उनके एक ही लेख के ये दो विरोधी विचार लिए जा सकते हैं---- (अ) "अगर यह सच है कि शिश्नोदर समस्या हमारे जीवन पर व्यापी हुई है, तो उससे बच कर किसी साहित्य को नैतिकता की ओर नहीं भागना होगा। पलायन वृत्ति में साहित्य का अशुभ है । साहस के साथ यथार्थ की सब कदर्य जघन्यतानों का सामना करना होगा । और साहित्य वही है, जो यथार्थ का सच्चा अक्स उतार कर हमें पेश करता है ।'' (आ) "वह कैसा साहित्य, जो व्यक्ति के आगे दर्पणवत् पाकर उसे असमर्थ और हीन दिखाता है । जो वर्तमान की त्रुटियों पर इतना ध्यान देता है कि भविष्य की परिपूर्णताओं को प्रोझल कर देता है । इसलिए साहित्य को क्षणिक और कृत्रिम यथार्थ की तरफ पीठ देकर, बल्कि उस पर पांव देकर, आदर्श के चित्रगा की पोर ही उठना होगा। किन्तु, वास्तव में ऐसा नहीं है । कभी एक अथवा दूसरे पर बलाबल होते हुए भी जैनेन्द्र जी का अन्तिम मत यही रहा है कि साहित्य में ग्रादर्श और यथार्थ दोनों की समान महत्ता है। इनमें से किसी का भी तिरस्कार नहीं हो सकता। 'बुद्धि' और 'आँख' को आदर्श के तथा 'पर' को यथार्थ के प्रतीक रूप में ग्रहण करते हुए उन्होंने इनके सामंजस्य पर ही बल दिया है-"हम जो एक साथ बुद्धि , अाँख और पैर के स्वामी हैं, क्या पैर का तिरस्कार करें ? हमारे व्यक्तित्व की शर्त यही है कि हम इन तीनों अवयवों में विरोध-भाव न पैदा होने दें और उन्हें परस्पर के प्रति निबाहने रहें.।'४ (५) साहित्य और भाषा-शैली । जैनेन्द्र जी भाषा को स्वाभाविक बनाये रखने पर बल देते हैं । उनकी स्वीकारोक्ति है कि "मैं अपने लिखने में स्वैराचार के दोष से मुक्त नहीं हूँ। जो शब्द प्राया १. 'उपन्यास में वास्तविकता' शार्षक लेख, (माहित्य का श्रेय और प्रय, पृ० १५७) २. 'प्रनिनिधित्व या उन्नयन' शीर्षक लेख, (माहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ०५८) ३ 'प्रतिनिधित्व या उन्नयन' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ५.६) ४. ध या शराब शीर्षक लेग्य (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ०६६)

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