Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 250
________________ जैनेन्द्र के जयवर्द्धन पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २३३ की सदाऋतु ! प्रश्नों का मौन हिमाचल, समुज्ज्वल हिमाचल ! किन्तु, जैनेन्द्र का तत्वकथन है - " भीतर उत्तर है, बाहर भी सब कहीं वही वह लिखा है । जो जानता है, पढ़ । जो जैसा जानता है, वैसा ही पढ़े। वह उत्तर कभी नहीं चुकता है । प्रखिल सृष्टि स्वयं में उत्तर ही तो है । अपने प्रश्न का वह श्राप ही उत्तर है ।" तत्वदर्शी जैनेन्द्र का तत्त्व-दर्शन यहाँ श्रभिव्यक्त हुआ है । जैनेन्द्र गीतावादी हैं। कर्म-फल को ही जीवन का जीवन-सारांश मानते हैं । जैनेन्द्र के चिन्तन पुरुष के शब्दों में, "कहो कि जो है, कर्मफल है ।" कर्म फल ही प्रमुख है । तांत्विक त्रास - प्लावन जैनेन्द्र के चिन्तक और कथाकार की विशेषता है । जैनेन्द्र के चिन्तन में समाज - पृथक्त्व नहीं, समाज-चिन्तन है, समाज का श्राधार चिंतन अस्तित्व - चिन्तन है | जैनेन्द्र बोध का समाज - श्राधार चिन्तन अपने निजत्व के प्रति जागरूक है । अपने को समाज की जड़ों में सींच देना समाज के फलने-फूलने का उपाय । यह जैनेन्द्र का मार्ग है। आत्मा को खोकर साम्राज्य प्राप्ति की प्राकांक्षा जैनेन्द्र की नहीं रही । किसी भी परिस्थिति में आत्मा के बिना साम्राज्य जैनेन्द्र मार्ग में ग्राह्य नहीं । आत्मा सृष्टि का तात्विक रत्न है, शेष धूल का ढेर है । रत्न-ढेर खोकर धूल के ढेर की आकांक्षा करना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? जैनेन्द्र ने जीवन और सृष्टि, पुरुष और नारी के अनेक प्रश्नों और व्यक्ति तथा व्यक्ति सत्य की आन्तरिकता को अपने चिन्तन का आधार बनाया है । मानव जीवन की गति, जैनेन्द्र के अनुसार, अप्रतिरोध है, अंधी नहीं । मानव जीवन परिभ्रमण नहीं, परिक्रमा है। जीवन मनुष्य का परिक्रमावादी होता है-परिभ्रमण होता नहीं । सीमाए बड़ी हैं, सीमाओं का हिमालय बड़ा है । मूल जीवन को जैनेन्द्र ने ध्यानपूर्वक देखा है, जागरूकता की स्थिति में देखा है । जीवन - वहिरन्तर के अंगारों को जैनेन्द्र ने चिमटे से पकड़ कर देखा है । जीवन की श्रान्तरिकता में जैनेन्द्र ने प्रवेश करने के दृढ़ प्रयत्न किए हैं। प्रवेश किया भी है। परिक्रमा परिभ्रमण का भ्रम है, परिभ्रमण का सत्य नहीं । गति सत्य है । गति परिक्रमा की भी होती है, होती ही है । बन्दिनी गति । जीवन और सृष्टि का सार है - वेदना | जैनेन्द्र के शब्दों में, “मानव चलता जाता है और बूँद-बूँद दर्द इकट्ठा होकर उसके भीतर भरता जाता है। वही सार है । वही जमा हुआ दर्द मानव की मानसमरिण है । उसके प्रकाश में मानव का गतिपथ उज्ज्वल होगा। नहीं तो चारों श्रोर गहन वन है, किसी ओर मार्ग सूझता नहीं है और मानव अपनी सुधा तृषा, राग-द्वेष, मान-मोह में भटकता फिरता है। यहाँ जाता है, वहाँ जाता है । पर असल में वह

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