________________
जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २४५ जयन्त की तथाकथित हाँ-प्रन्वेषण-योजना में जयंत की नकारात्मकता छिपी है, जीवन-अस्वीकृति के प्रति उसका सम्मोहन भी । जयंत का हाँ, नहीं का रूप है। जयन्त में जीवन का नहींवाद है । जनेन्द्र का सर्वप्रमुख नहींवादी पात्र जयन्त ने अपने जीवन में जीवन की हाँ-सार्थकता ग्रहण करने का उद्योग नहीं किया। जीवन के सम्पूर्णत्व और जीवन के सम्पूर्ण घनत्व को जयन्त ने 'नहीं' के अंधकार में लिया। अतएव जीवन के हाँ का पालोक उसमें खिल नहीं सका । जीवन केवल नहीं का नकली नशा नहीं, तात्त्विक हाँ की सात्त्विक सार्थकता है । 'नहीं-नहीं' के प्रति जयंत की अतिशय प्रासक्ति जयंत को केवल एक 'नहीं' ही बना देती है । जयंत-बोध अपने नहींवाद से परिचित है। जयन्त के जीवन और निजत्व का नहींवाद जयंत का सुपरिचित सत्य है । जयंत का नहींमार्गी रूपवाद व्यक्ति-वास्तव, व्यक्ति-बोध और व्यक्ति-सत्य की अमानुषिक अवहेलना करता है । जयंत एक विशेष प्रकार की व्यतीतमार्गी प्रन्यि से पीड़ित है । इस ग्रंथि को मैं जयंत-ग्रन्थि कहूँगा। यह व्यतीत-ग्रंथि है।
जैनेन्द्र के पात्र भाग्य के प्रति आस्थावादी होते हैं, यद्यपि जैनेन्द्र-पात्र गोदानवादी होरी नहीं होते । जयंत भाग्य पर आस्था रखता है। 'व्यतीत' में भाग्य-प्रतिपादन है।
जयन्त सत्य-सम्भाषण में अपनी सम्पूर्णता के साथ विश्वास करता है । जैनेन्द्र के पात्र सत्यवादी होते है । सत्य-सम्भाषरग करते हैं ।
जयन्त विवाह से भागता है । विवाह को अनिता धर्म का निर्वाह मानती है। विवाह को जयंत केवल धर्म का निर्वाह नहीं मानता । विवाह पर केवल धर्म की नाटकीयता ही पर्याप्त नहीं है । इसीलिए जयंत का पुरुष अभिव्यक्त होता है-'इससे क्या होगा ?'
अनिता ने कहा, अनिता की नारी ने कहा और नारी की अनिता ने भी कहा"घर बँधकर बैठते तुम, जयंत, तो मेरा भी घर बना रहता । नहीं तो ज्वालामुखी पर बैठी हूँ । कब सब जल जायगा, कह नहीं सकती।"
व्यतीत का व्यतीत बोधात्मक वृत्तवाद इन तीन पंक्तियों के नेपथ्य में निहित है।
और भी, अनिता ने कहा, अपने पूरे रूप में अनिता ने कहा-"मेरा घर बना रहा तो तुम होगे, उजड़ गया तो भी तुम होगे।"
वह अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण स्पष्टता ले अपने को सुरक्षित रखना चाहती है। क्योंकि, नारी अभिव्यक्त हो जाती है, अभिव्यक्ति सम्पूर्णत्व से वह यथासाध्य अपने को सुरक्षित रखना चाहती है । नारी जितना प्रकट होती है, उससे ज्यादा अप्रकट