Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 268
________________ MAA.....handesman AAAAAAAA २५२ जमेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व चिन्तन के कतिपय रत्न 'कल्याणी' में हैं, जैसे धन-उत्सर्ग का दिव्य भाव । किन्तु इतने से ही जैनेन्द्र गांधीवादी नहीं हो जाते । स्वयं जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' में ही गांधीवाद का अवमूल्यन किया है। अपने प्रथम उपन्यास 'परख' के प्रथम परिच्छेद में जैनेन्द्र ने लिखा___ "बी० ए० पास करने के बाद ताल्स्टाय, रस्किन , गांधी या जाने किसका एक 'विचार-स्फुलिंग' इनके जवानी के तेज खून में पड़ गया था।" यदि अपने प्रथम उपन्यास के प्रथम परिच्छेद में ही गांधी का नाम ले लेने के कारण जैनेन्द्र गांधीवादी कहे जाते हैं तो वह ताल्स्टायवादी अथवा रस्किनवादी क्यों नहीं कहे जा सकते हैं ? क्योंकि उनके प्रथम उपन्यास के प्रथम परिच्छेद में ताल्स्टाय और रस्किन के भी नाम माए हैं। कल्याणी मृत्यु के प्रति अतिशय जागरूक है; मृत्यु की अनिवार्यता के प्रति नहीं। जैनेन्द्र के अनुसार, "अपने बस से बाहर की बात कहना सदा झूठ कहना है। यहाँ बचना किसको है ? लेकिन जीना-मरना जिसके हाथ है ; उसी के हाथ है। हम कोन जो उस पर मुंह खोलें ?" मृत्यु पर हमारा अधिकार नहीं । मृत्यु का सम्यक् अधिकार हम पर है। मृत्यु का विरोध या मृत्यु के प्रश्नों का उत्तर देने का प्रश्न नहीं उटता । जीना-मरना हमारे बस की बात नहीं। जीने-मरने का महासूत्र जिस महासूत्रधार के पास है, उसके समक्ष हमारा मूल्य ही कितना है ? मृत्यु मनुष्य के अधिकार-क्षेत्र से बाहर का विषय है । अपने अन्दर से अन्दर का यह प्रश्न कल्याणी करती है-- "लेकिन मैं अभी क्यों जी रही हूँ ?” इस प्रश्न का उत्तर उसे नहीं मिल पाता। ___ यद्यपि उपयोगी कर्म में अपने को भूलकर लगे रहना ही धर्म है, किन्तु कल्याणी कहती है-"भूलना कब तक चलेगा ? मानिए आप, सब प्रपंच है, सब छलना है।" कल्यारणा की उपयोगी कर्मसम्बद्धता में कल्याणी-चित्र का दिशा-निरूपण है, जीवन-स्थायित्व अथवा जीवन-अमरत्व, जीवन-तुष्टि के भाव नहीं। कल्याणी का अन्दर उसके बाहर की चमक के साथ मिल नहीं पाता । कल्याणी के बाहर में छिलकों पर रंग छिड़ककर उसके अन्दर को छिपा लेने का प्रयास किया जाता है। भड़कदार बाहर को ओढ़कर अन्दर के हर चेहरे को अन्यथा दिखा लेना बहुत दूर तक संभव हो जाता है। .. कल्याणी भगवान के मंदिर से मनुष्य की निजत्व-निष्ठा की पावन गरिमा स्थापित करना चाहती है। मंदिर के प्रति निजत्व-व्रत के बिना मंदिर का मूल्य नहीं रहता। अपने को सँभालने की अपेक्षा जीवन में अपनी तरह रहना विशेष महत्वपूर्ण और आवश्यक है।' कल्याणी में अपने को बूंद-बूद इकट्ठा करना नहीं, अपने को

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