Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 263
________________ जैनेन्द्र के जयवर्द्धन पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २४७ में से घटनाएँ भी होंगी । जैनेन्द्र के अनुसार "अनश्वर शान्ति • श्राध्यात्मिक शांति, पारमात्मिक शान्ति ! उसी के लिए तो विधाता की भोर से अंकुठित यह मृत्यु का दान है ।" जैनेन्द्र मरण का अपमान नहीं करते । मरण की श्रावश्यकता की पूर्ति में जैनेन्द्र की प्रास्था है । महादेवी वर्मा मृत्यु को जीवन का चरम विकास मानती हैं। वेदना और मृत्यु के संबंध में जैनेन्द्र और महादेवी एक ही धरातल पर हैं । वेदना और मृत्यु के भाव - संदर्भ में जैनेन्द्र और महादेवी का तुलनात्मक अध्ययन विचार - विश्लेषण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होगा। स्थानाभाव यहाँ मेरा बाधक है । जैनेन्द्र ने शान्ति को स्वाहा के बाद की स्थिति स्वीकार की है । जैनेन्द्र पाप-पुण्य का चित्रलेखावादी विवेचन नहीं करते । ' त्यागपत्र' के प्रारम्भ में प्रमोद के शब्दों में जैनेन्द्र ने कहा - " पाप-पुण्य की समीक्षा मुझसे न होगी ।" किन्तु व्यतीतमार्गी जयन्त पाप के प्रति 'त्यागपत्र' के प्रमोद की तरह नहीं सोचता । ऐसा क्यों ? जैनेन्द्र 'व्यतीत' के आधार पर व्यक्ति को रूप और दिशा का कौन मार्ग प्रदान करना चाहते हैं ? क्या जैनेन्द्र जीवन में व्यतीत व्यक्ति-दर्शन कार्यान्वित करना चाहते हैं ? जैनेन्द्र ने विवाह के प्रश्न पर काफी विचार किया है । 'व्यतीत' के शब्दों में, "कहते हैं, विवाह करते हम हैं, होता भगवान के यहाँ है । यह भी सुनता हूँ कि जन्म-जन्मान्तर तक विवाह की व्याप्ति है । दो एक-दूसरे में एक इस भव में ही नहीं होते, पहले से चले आते हैं। इससे यह काम कर्त्तव्यता से नहीं होता, भवितव्यता से होता है। सचमुच ऐसा ही लगता है । श्रौर विवाह सामाजिक है ।" 'परख' में जैनेन्द्र ने कहा था- 'विवाह बिल्कुल एक सामाजिक समस्या है, सामाजिक तत्त्व है। तुम भूलते हो, अगर तुम उसे और कुछ समझो । उन कुछ उत्तरदायित्वों से जो जीवन के साथ बँधे हैं, उऋण होने के लिये यह विवाह का विधान है। दुनिया में क्या करना है, उसकी दृष्टि से लाभ क्या पूर्ण होगा, क्या नहीं, कुटुम्बियों की प्रसन्नता किस ओर है और अपना स्वार्थ किस प्रोर है- ये सभी बातें विवाह के प्रश्न में संश्लिष्ट हैं ।" 'परख' में थोड़ा श्रागे चलकर जैनेन्द्र ने कहा - "जीवन तो दायित्व है, और विवाह वास्तव में उसकी पूर्णता की राह, - उसकी शर्त । प्रेम को इस दायित्वपूर्ण विवाह में कैसे दखल देने दिया जाय ?" 'सुनीता' और विवर्त' में भी विवाह के प्रश्न पर जैनेन्द्र ने विचार किया है । 'त्यागपत्र' में जैनेन्द्र ने कहा

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