________________
२३२
जनेद्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
है । मृणाल का गर्भ इसी पुरुष का है । तब मृणाल की यह उक्ति मृणाल की उज्ज्वलता का परिचय देती है । इस व्यक्ति के प्रति मृणाल का तथाकथित पतिव्रत धर्म मृणाल की नारीत्व - संश्लिष्टता को स्पष्ट करने का प्रयास करता है ।
दुर्जन लोगों की सद्भावना ही बाद में मृणाल की पूँजी बन जाती है। दुर्जन कहे जाने वाले लोगों के बहुत अन्दर वह प्रवेश करती है, तब अनुभूति वह प्राप्त करती है कि "सब के अभ्यन्तर में परमात्मा है । वह सर्वान्तर्यामी है, सर्वव्यापी है।"
मृणाल के भीतर की श्रद्धा टूटती नहीं, उसके भीतर की श्रद्धा उस पर घिरी रहती है। श्रद्धा के टूटने पर ही वह पुरुष श्राह्वान कर सकती है। श्रीर, वह अवसर नहीं आया । वह समाज के तथाकथित निम्न वर्ग के निष्ठापूर्वक कल्याण की प्रार्थिनी है । तभी वह प्रमोद से कह सकी - "खूब कमा और कमाकर सब इस गड्ढे में ला पटका कर । सुना कि नहीं। रुपये के जोर से यह नरक-कुण्ड स्वर्ग बन सकता है, ऐसा तो मैं नहीं मानती । फिर भी रुपया कुछ-न-कुछ काम ना सकता है ।"
सही थों में, पूँजी की जीवन सार्थकता का भाव यहां निवेदित है, पैसे की जीवनपरक कृतार्थता से वंचित नहीं । और, यह प्रमोद यह नहीं कर सका । इसी की प्रतिक्रिया प्रमोद का त्यागपत्र है, शीर्षक में कथा की सार्थकता है ।
जैनेन्द्र ने सृष्टि-लीला के सम्पूर्णत्व को जगत्पिता की छाया में देखा है । जैनेन्द्र के अनुसार परम कल्याणमय का अपनी लीला का विस्तृतीकरण सृष्टि का रहस्य- दर्शन है । परम कल्याणमय जगत्पिता है, जगत्पिता परम कल्याणमय है । जैनेन्द्र का प्रास्तिकता से परिपूर्ण जागरूक चेतनावाद चिन्तन-मुद्रा में है—
" परम - कल्याणमय, तेरी कल्याणीय लीला को मैं नहीं जानता हूँ। फिर भी रोने-बिलखने की आवाज़ तो चारों ओर से मेरे कानों में भरी आ रही है । यह क्या है, प्रो जगत्पिता ! तेरी लीला के नीचे यह सब आर्तनाद क्या है ?"
जैनेन्द्र का चिन्तक सृष्टि के प्रार्तनाद का मूल कारण जानना चाहता है, जीवन और सृष्टि में परिव्याप्त रुदन और प्रार्तनाद भाव को समझना चाहता है । वह जगत्पिता से कल्याण की ही आशा रखता है, इसीलिए वह उसे परम कल्याणमय के रूप में सम्बोधित करता है। पिता अपनी संतानों का कल्याण कैसे कर सकता है ? और ईश्वर तो पिता ही नहीं, जगत्पिता है ।
जगत्पिता से हमारा सम्बन्ध जीवन- ग्रहरण और जीवन-विसर्जन का सम्बन्ध है । लीला जगत्पिता की है, परम कल्याणमय की है; जीते-मरते हम हैं । जैनेन्द्र का चिन्तन घनत्व सृष्टि के रहस्योद्घाटन में जागरूक है, जीवनयापन और मरण के क्या कारण हैं ? जीवन- चेष्टा श्रौर जीवन- प्रयत्न क्या है ? क्यों हैं ? अनुत्तरित प्रश्नों