Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 218
________________ २०० जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व मैंने स्वीकार किया है और वाक्य जैसा बना बनने दिया ।" "अथवा बढ़ियापन का लालच पाकर मैं कृत्रिम भाषा पाठक को कैसे दूँ ? यदि मैं पूरे रूप में परिष्कृत नहीं हं तो यह मेरा अपराध है, पर जो हूँ, वही रह कर मैं पाठक के समक्ष क्यों न जाऊँ ? वस्तुत: जैनेन्द्र जी का भाषा की स्वाभाविकता पर बल देना ठीक भी है। जिस समय साहित्यकार अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है, उस समय वह यह नहीं सोचता कि मैं किस प्रकार के शब्दों का चयन करूँ या किस प्रकार का वाक्य-विन्यास करूँ ? यदि वह ऐसा सोचेगा तो भावावेग की स्थिति समाप्त होने का भय बना रहेगा। प्रतः साहित्य-सृजन के विशिष्ट क्षणों में साहित्यकार को भाषा के परिष्कार की चिन्ता न करके उसे स्वाभाविक रूप में ही ग्रहण करना चाहिए । “वह भाषा दरिद्र है जो जिन्दगी का माथ देने की बजाय उस पर सवारी कसती है ।''3 इस शब्दों में जैनेन्द्र जी ने इसी मत की पुष्टि की है। शब्द की तीन शक्तियों-अभिधा, लक्षणा, व्यंजना-में से जनेन्द्र जी ने साहित्य-रचना में तीनों का महत्त्व स्वीकार किया है । "भाव. उसमें से पाठक को ऐसा सीधा मिले कि बीच में होने के लिए कहीं भाषा का अस्तित्व रहा है, यह तक उसे न अनुभव हो।" कह कर उन्होंने एक ओर तो अभिधा की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया है, और दूसरी ओर निम्नस्थ उद्धरणों में लक्षणा-व्यंजना की महत्ता को भी स्वीकार किया है (अ) 'सुन्दर गद्य का सौन्दर्य शब्दार्थ में नहीं होता । शब्द के अर्थ तक जो रहता है, अधिकांश में वह गद्य विचारणीय नहीं बनता। रोजमर्रा की बोल-चाल की बात को कौन मन तक लेता है ?''५ (ग्रा) “साहित्य की भाषा कभी सीधे नहीं, सदा व्यं जना द्वारा ही अपना अभिप्राय देती है। यों भी कह सकते हैं कि वहाँ भाषा कह कर इतना नहीं कहती, जितना अनकहा छोड़ कर कहती है । ६ (इ) "किसी रचना में प्रसाद और व्यंग्य का न होना बहुत खराब है-यदि मेरी रचनाओं में उसका अभाव है, तो मैं इसे अच्छा नहीं मानता ।" १. 'मैं और मेरी कला' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ३२६) २. 'आलोचक के प्रति' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० १०७) ३. 'मैं और मेरी कला' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ३२६) ४. 'गद्य विकास और कथा उपन्यास' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रय, पृ० १४७) ५. 'गद्य विकास और कथा उपन्यास' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० १४५) ६. 'गद्य विकास औ कथा उपन्यास' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० १४५) ७. 'विविध' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ३५९)

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