Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 235
________________ २१८ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व के जीवितं सर्म्पक में रहना होगा । आज और कल के बीच में बन्द हम नहीं रहेगे । शाश्वत को भी छुएँगे, सनातन और अनन्त को भी हम चखेंगे। तुमने जो बनी बनाई राह सामने कर दी है, वह हमें कुछ भी दूर नहीं ले जाती । हमारा मार्ग श्रनन्त है और यह तुम्हारी राह अपनी समाप्ति पर संतुष्ट पारिवारिक जीवन देकर हमें भुलावे में डाल देती है । मनुष्य पति और पिता बनकर अपने को बाँधता है । इस प्रकार उत्सर्ग की, मुक्त और स्वाधीन जीवन की महिमा से वह अपने को दूर बनाता है ।' और भी, "घर-बार बसाकर तो ग्रादमी अपने को ह्रस्व करता है, मुझे उस राह नहीं जाना ") "" यहाँ हरिप्रसन्न-दर्शन उद्घाटित हुआ है । इन्हीं हरिप्रसन्न सूत्रों का एकीकरण हरिप्रसन्नवाद है । हरिप्रसन्नवाद जीवन को व्यतीतवादी दृष्टिकोण नहीं देता । वह जीवन को अर्थ संदर्भ और भाव-संदर्भ में परखता है । 'व्यतीत' का जयन्त जीवन का सम्यक् भाष्य नहीं उपस्थित करता । जयन्त में हरिप्रसन्न नहीं है । नारी की देह वास्तव परिधि के प्रति जयन्त ( ' व्यतीत ' ) और हरिप्रसन्न ( 'सुनीता' ) की भाव- कुंठा अथवा कुठावाद व्यक्ति सत्यों के आलोक में परीक्षण का विषय है । जिस व्यक्ति ने स्त्री को "हाँ, मैं तैयार हूँ" वेश-भूषा में ही देखा है, वह अवश्य किसी सुनीता से कहेगा कि "तुमको चाहता हूँ । समूची तुमको चाहता हूँ । उसके बाद -1" किन्तु नारी की स्वेच्छापूर्ण बाधारहित समर्पणवादी नग्नता के समक्ष वह दोनों हाथों से अपनी आँखें नहीं ढँक लेगा, कभी नहीं सोचेगा कि धरती फट क्यों न गई कि वह गड़ जाता । हरिप्रसन्न सुनीता को अपने अन्दर केवल सुनीता के रूप में रखता है, 'सुनीता श्रीकान्त' के रूप में नहीं । सुनीता, ऐसा मालूम पड़ता है. हरिप्रसन्न अर्थात् पुरुष मन की जीवन-ग्रन्थि है । इतिवृत्तवाद, चारित्रिकता आदि के क्षेत्रों में सुनीताग्रन्थि अर्थात् पुरुष मन की जीवन-ग्रन्थि सुनीता के उपन्यासवाद में है । श्रीमती सुनीता देवी' और 'सुनीता श्रीकान्त' विवेचन में हरिप्रसन्न के पुरुषतंत्र के नारी - सत्य थोड़ा विश्लेषण हो गया है । हरिप्रसन्न उत्पादक श्रम चाहता है । उत्पादक श्रम का श्रीकान्त - विवेचन मनन करने योग्य है । हरिप्रसन्न शारीरिक अस्तित्व के लिए शारीरिक श्रम पर रहना चाहता है, किन्तु उपन्यास में वह कहीं भी शारीरिक अस्तित्व के लिए शारीरिक श्रम करता हुआ नहीं पाया जाता । हरिप्रसन्न के अनुसार, “पढ़ाने के काम से जीविका पाना मैं ठीक नहीं समझता ।" क्योंकि, उसके अनुसार ' जिस श्रम का बदला आजीविका के साधन के रूप में अर्थात् से के रूप में मिले, वह श्रम शारीरिक होना चाहिए । अन्य श्रम निःशुल्क होना चाहिए ।" अतएव, वह सुनीता की बहन का

Loading...

Page Navigation
1 ... 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275