Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 233
________________ २१६ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व पादित समष्टि-साधन के गरिमा-सूत्र परख-उपसंहार में पा गए हैं । जैनेन्द्र को लोकविमुख व्यक्तिवाद के प्रतिपादक के रूप में स्वीकार करना साहित्यवाद, साहित्यालोक, साहित्यतत्त्ववाद, साहित्य-प्राधारवाद और साहित्य-व्यक्तित्ववाद के प्रति नास्तिकता का परिचय देना होगा, अन्याय होगा। जैनेन्द्र के चिन्तन-विकास को भली-भांति समझने-परखने के लिए 'परख' की बड़ी आवश्यकता है। उनके चितक और कथाकार के परख-निरूपित रूप की महत्ता जैनेन्द्र-विकास के ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विशेष है। चरित्रात्मक उपन्यास 'सुनीता' जैनेन्द्र की बहचचित उपलब्धि है । इसे उपन्यासवाद की उपलब्धि कहा जा सकता है । विराट् अर्थों में 'सुनीता' आन्दोलन की गाथा है । हरिप्रसन्न क्रांति का नायक है और श्रीकांत उसका मित्र । सुनीता गार्हस्थ्य धर्म की देवी है । सुनीता का उत्तरार्द्ध मूलप्रवृत्तियों को नारीत्व के धरातल पर उपस्थित करता है । 'सुनीता' उपन्यास की परिणति सुनीता का गार्हस्थ्य प्रत्यावर्तन है, जिसके आधार पर जैनेन्द्र ने नारी को परिवार से पृथक् नहीं किया। 'सुनीता' उपन्यास हिंदी उपन्यास-क्षेत्र में आन्दोलन के रूप में स्वीकृत हुआ। 'सुनीता' का नायकत्व विवादास्पद है । श्रीकांत अथवा हरिप्रसन्न के नायकत्व के प्रश्न पर सम्भवतः हम सहसा एकमत नहीं हो सकते । जैनेन्द्र ने नायकत्व को दो चरित्रों में समान रूप से वितरित कर दिया है । जैनेन्द्र में यह आदत सदा ही रही है। घटनाओं की चारिविकता पर विशेष ध्यान जैनेन्द्र का रहा है । उन्होंने घटनाओं को इतिवृत्तात्मक दृष्टिकोण से नहीं देखा, उन्हें चारित्रिक, मार्मिकता, मनोविज्ञान और दर्शन के आलोक में देखा है । जैनेन्द्र का चरित्रवाद घटनाओं के सिर पर बोलता है । जैनेन्द्र-साहित्य की इतिवृत्तात्मकता में प्रतीकत्व है । उनके इतिवृत्त भी चरित्रपूर्ण हैं । जैनेन्द्र-साहित्य की चारित्रिक इतिवृत्तात्मकता साहित्य की विशिष्ट देन है । 'सुनीता' उपन्यास जैनेन्द्र का चरित्रवाद उद्घोषित करता है । इतिवृत्तात्मक चारित्रिकता को चित्रित करते हुए लेखक ने 'श्रीमती सुनीता देवी' और 'सुनीता श्रीकांत' का नाम-विवेचन हरिप्रसन्न के पुरुष-मन द्वारा प्रस्तुत किया है । "बिना मिसेज पूर्वक उन्हीं 'श्रीमती सुनीता देवी' के अक्षरों वाले हाथों से निरा 'सुनीता श्रीकांत' लिखा देखकर हरिप्रसन्न का जी कुछ कुठित होता है । जैसे वह एकदम वंचित रखा जा रहा हो । उसने फिर फाउण्टेन पेन निकालकर कुछ संशोधन करना चाहा, पर उसका हाथ रुक गया। मानों यह उसके लिए निषिद्ध होता है।" (सुनीता : पृष्ठ संख्या ४७) इस मौन इतिवृत्त के आधार पर विवाह, पत्नीत्व और पुरुष के नारी-सत्य की ओर लेखक संकेत करता है। हरिप्रसन्न के प्रति सुनीता का नारीत्व-समर्पण मनोविज्ञान के मर्मज्ञों का विषय है। श्रीकांत हरिप्रसन्न का मित्र है । मित्र से मेरा तात्पर्य यहाँ है हरिप्रसन्न

Loading...

Page Navigation
1 ... 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275