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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व प्रार्थना में से बल पाया है।
सनीतावाद कर्म का गीतावाद है । कर्म-स्वीकृति पर वह है । कर्म के आवाहन पर सुनीता-चिन्तन जीवन खर्च करता है । कर्म की गौरव-रक्षा के लिए जीवन का अनुदान वह प्रदान कर सकता है. करने में सूक्षम और सबल है।
__अपनी अबलता स्वीकार कर न भागना अच्छा है, कि अपनी सबलता के दम्भ में पीठ दिखाकर भाग खड़े होना अच्छा है ? जिस निर्बलता ने राम का बल पकड़ा है, उसका बल फिर क्यों हारे ?". . . . . . ('सनीता')
सुनीतावादी प्रश्नों में जीवन और जीवन-निर्माण का मार्ग-दर्शन निहित है। और, सच तो यह है कि जैनेन्द्र के उपन्यासों का मूलाधार जीवनपरक चिन्तन, जीवनपरक कुछ प्रश्न ही हैं । जैनेन्द्र के उपन्यास मूलतः प्रश्नवादी उपन्यास हैं । प्रश्नों में ही जैनेन्द्र के उपन्यास हैं । निराकरण के प्रयत्न हैं, निराकरणवाद अथवा सुनिश्चित और सर्वनिश्चित निराकरण नहीं, प्रश्नों की परिसमाप्ति नहीं। जैनेन्द्र ने जीवन पर अनेक प्रश्न किए हैं। जीवन में जैनेन्द्र एक जागरूक प्रश्नकर्ता के रूप में जाते हैं। एक शोधकर्ता के रूप में जाते हैं, श्रद्धालु भक्त की अन्ध-विनम्रता और अन्ध-भक्ति लेकर नहीं।
भाग्यवादी हरिप्रसन्न परमात्मा के प्रश्न पर बौद्धिकता का प्राश्रय लेता है और भाग्य के प्रश्न पर बौद्धिकता से पृथकत्व स्थापित कर लेता है । हरिप्रसन्न कहता है-"परमात्मा हो तो रहे, मैं अपने को उसके साथ क्यों अटकाऊँ ? मैं उसे अपना कष्ट न दूंगा' . . . . . . . . ''यहाँ मनुष्य का बीसवीं शताब्दीवाद बोल रहा है।
श्रीकान्त, हरिप्रसन्न और सुनीता व्यक्ति-सत्यों से परिपूर्ण हैं। हरिप्रसन्न और सनीता का पारस्परिक परमात्मा विवेचन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जैनेन्द्र की संवेदना बौद्धिकता की सेविका नहीं है। जैनेन्द्र में संवेदना बौद्धिकता को शासित करती है, उससे शासित नहीं होती। प्रेमचन्द का संवेदनावाद जैनेन्द्र की अपेक्षा विशेष व्यापक और विस्तृत है । किन्तु जैनेन्द्र का संवेदन वृत संक्षिप्त है, लघु है-संवेदन संक्षेपण है । हाँ, जीवन की हार्दिकता को जैनेन्द्र ने जीवन में स्वीकार किया है ।
हरिप्रसन्न चट्टान नहीं, तरल जल चाहता है, यद्यपि उसमें चट्टान का संयम है और चट्टान की कठोरता और दृढ़ता भी । 'कल्याणी' परिसमाप्ति का 'मुझे रहना है' सिद्धान्त हरिप्रसन्न ने परमात्मा-विवेचन में भी प्रतिपादित किया है। परमात्मा का हरिप्रसन्न-विवेचन बौद्धिकता उद्घाटित करता है। परमात्मा का सुनीता-विवेचन संवेदनामयी हार्दिकता की जीवन-तन्मयता है । संवेदनामयी हार्दिकता की जीवनतन्मयता और कर्म का गीतावाद सुनीतावाद में है । सुनीतावादी आस्था जीवन के पालोक में हरिप्रसन्न का बुद्धि-ज्वर उतर जाता है । सुनीतावाद की जय परिलक्षित होती है, हरिप्रसन्न सुनीतावाद के समक्ष अपने को अपने में प्रात्म-समर्पण कर