Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 242
________________ wwwwwwwwww ~ ~ ~ ~~~ ........ ~~~ wwwwwwwwww ~ ~~~ जैनेन्द्र के जयवर्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २२५ देता है। जैनेन्द्र जाने को भागना नहीं कहते । तथ्य यह है भी। हरिप्रसन्न से सुनीता कहती है-"मैं कहती हूँ कि जाओ भले, पर भागो मत... . . . सच कहो, क्या मुझसे भागते हो-" "तुमसे ?–हाँ-" सुनीता कुछ मुस्कराई ---"तो मैं भी तुमसे भागू ?" "तुम ही कहती हो, भागो मत । मैं तो, हाँ, कहता हूँ, भाग जाओ। वक्त रहे, तब तक भाग जाओ । मुझे भी कहो कि मैं भाग जाऊँ । भाभी, नहीं तो-" सुनीता ने व्यंग्य और विनोद भरे शब्दों में कहा-"नहीं तो प्रलय होगी, यही न कहते थे ? अच्छी बात है, मैं भागे जाती हूँ !" ___ कहकर वह उठ खड़ी हुई । तभी बाहर से आती हुई श्रीकान्त की आवाज सुन पड़ी-'हरिप्रसन्न !' सुनीता खड़ी होते-होते बैठ गई, धीमे से बोली, “लो मैं तो भाग चली थी, पर भागने का द्वार तो रक्षक से घिर गया है ......।" 'सुनीता में पुरुष भागने की अन्धकारपूर्ण चेष्टा करता है, नारी चलती है । अर्थात् नारी जीवन में है, जीवन की है और पुरुष जीवन के विपरीत दिशा-सामजस्य में है । क्रान्तिकारी दल का नायक हरिप्रसन्न भागने की कोशिश करता है। भागने का उपदेश देता है और गृहिणी सुनीता भागने के विरोध में ज्योति-दान करती है। विस्मय की बात यह है । पुरुष भाग सकता है, पर नारी और सुनीता की नारी नहीं भाग सकती-उसके भागने का द्वार रक्षक से घिरा है । पुरुष के द्वार पर कोई रक्षक नहीं है । समाजबोध के वर्गीकृत पुरुष और नारी का वास्तववादी पर्यवेक्षण यह है। उद्धृत कथोपकथन की अन्तिम पंक्ति में नारी-सत्य उद्भासित है-नारी का मर्यादावाद । नारी के जीवन-द्वार पर रक्षक, उपस्थित है, अतएव उसकी स्थिति पुरुष से भिन्न है। संघर्ष निष्ठा की एकाग्र पवित्रता और सहज भावापन्न जीवन की सात्त्विकता नारी और 'सुनीता' की सुनीता नारी अर्थात् 'सुनीता' की प्रधान नारी में अवश्य है। पुरुष के दो रूप हैं-हरिप्रसन्न और श्रीकान्त । पुरुष का हरिप्रसन्न कहता है......"भाग जाप्रो । वक्त रहे, तब तक भाग जानो।" यदि पुरुष का यह आदेश जीवन में स्वीकार कर लिया जाय, तब जीवन जीवन से दूर हो जायगा। मनुष्य टूट जायगा, मनुष्य-सौष्ठव समाप्त हो जायगा,

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