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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व पादित समष्टि-साधन के गरिमा-सूत्र परख-उपसंहार में पा गए हैं । जैनेन्द्र को लोकविमुख व्यक्तिवाद के प्रतिपादक के रूप में स्वीकार करना साहित्यवाद, साहित्यालोक, साहित्यतत्त्ववाद, साहित्य-प्राधारवाद और साहित्य-व्यक्तित्ववाद के प्रति नास्तिकता का परिचय देना होगा, अन्याय होगा।
जैनेन्द्र के चिन्तन-विकास को भली-भांति समझने-परखने के लिए 'परख' की बड़ी आवश्यकता है। उनके चितक और कथाकार के परख-निरूपित रूप की महत्ता जैनेन्द्र-विकास के ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विशेष है।
चरित्रात्मक उपन्यास 'सुनीता' जैनेन्द्र की बहचचित उपलब्धि है । इसे उपन्यासवाद की उपलब्धि कहा जा सकता है । विराट् अर्थों में 'सुनीता' आन्दोलन की गाथा है । हरिप्रसन्न क्रांति का नायक है और श्रीकांत उसका मित्र । सुनीता गार्हस्थ्य धर्म की देवी है । सुनीता का उत्तरार्द्ध मूलप्रवृत्तियों को नारीत्व के धरातल पर उपस्थित करता है । 'सुनीता' उपन्यास की परिणति सुनीता का गार्हस्थ्य प्रत्यावर्तन है, जिसके आधार पर जैनेन्द्र ने नारी को परिवार से पृथक् नहीं किया। 'सुनीता' उपन्यास हिंदी उपन्यास-क्षेत्र में आन्दोलन के रूप में स्वीकृत हुआ। 'सुनीता' का नायकत्व विवादास्पद है । श्रीकांत अथवा हरिप्रसन्न के नायकत्व के प्रश्न पर सम्भवतः हम सहसा एकमत नहीं हो सकते । जैनेन्द्र ने नायकत्व को दो चरित्रों में समान रूप से वितरित कर दिया है । जैनेन्द्र में यह आदत सदा ही रही है। घटनाओं की चारिविकता पर विशेष ध्यान जैनेन्द्र का रहा है । उन्होंने घटनाओं को इतिवृत्तात्मक दृष्टिकोण से नहीं देखा, उन्हें चारित्रिक, मार्मिकता, मनोविज्ञान और दर्शन के आलोक में देखा है । जैनेन्द्र का चरित्रवाद घटनाओं के सिर पर बोलता है । जैनेन्द्र-साहित्य की इतिवृत्तात्मकता में प्रतीकत्व है । उनके इतिवृत्त भी चरित्रपूर्ण हैं । जैनेन्द्र-साहित्य की चारित्रिक इतिवृत्तात्मकता साहित्य की विशिष्ट देन है । 'सुनीता' उपन्यास जैनेन्द्र का चरित्रवाद उद्घोषित करता है । इतिवृत्तात्मक चारित्रिकता को चित्रित करते हुए लेखक ने 'श्रीमती सुनीता देवी' और 'सुनीता श्रीकांत' का नाम-विवेचन हरिप्रसन्न के पुरुष-मन द्वारा प्रस्तुत किया है । "बिना मिसेज पूर्वक उन्हीं 'श्रीमती सुनीता देवी' के अक्षरों वाले हाथों से निरा 'सुनीता श्रीकांत' लिखा देखकर हरिप्रसन्न का जी कुछ कुठित होता है । जैसे वह एकदम वंचित रखा जा रहा हो । उसने फिर फाउण्टेन पेन निकालकर कुछ संशोधन करना चाहा, पर उसका हाथ रुक गया। मानों यह उसके लिए निषिद्ध होता है।" (सुनीता : पृष्ठ संख्या ४७) इस मौन इतिवृत्त के आधार पर विवाह, पत्नीत्व और पुरुष के नारी-सत्य की ओर लेखक संकेत करता है।
हरिप्रसन्न के प्रति सुनीता का नारीत्व-समर्पण मनोविज्ञान के मर्मज्ञों का विषय है। श्रीकांत हरिप्रसन्न का मित्र है । मित्र से मेरा तात्पर्य यहाँ है हरिप्रसन्न