________________
जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २१७ के प्रति श्रीकांत-व्यक्तित्व का प्रात्म-समर्पण । सुनीता श्रीकांत की पत्नी है। किंतु, सुनीता हरिप्रसन्न अन्त में, श्रीकांत के माध्यम से सुनीता के निकट नहीं जाता। वह हरिप्रसन्न और सुनीता के मध्य के श्रीकांत को निरर्थक सिद्ध करने का प्रयत्न करता है । अर्थात्, पुरुष और नारी की मध्यवर्ती सामाजिक मूर्तिमात्र पुरुष और नारी के मूलप्रवृत्तिवाद के समक्ष घुटने टेक देती है । हरिप्रसन्न कहता है- "सुनीता, मैं अब तुम्हें भाभी नहीं कहता । जिन्हें भाई कहता हूँ, उनकी ही मार्फत तुम तक पहुँचूं, अब ऐसा नहीं है । मैं तुम्हें सुनीता कहूँगा । हम सीधे एक दूसरे के सामने हैं । किसी की मारफत हम दोनों के बीच में नहीं हैं । श्रीकांत तुम्हारा पति है, मेरा मित्र है। पति एक होता है, मित्र भी शायद एक ही होता है । मेरे लिए तो वह एक ही
यहाँ पुरुष और नारी मूलप्रवृत्ति की दीपमालिका-ज्योति में प्रकाशान्वित हो
भाभीमार्गी हरिप्रसन्न सुनीता में अपने पुरुष का साध्य प्राप्त कर लेता है । सुनीता की भाभी-आवृत्ति के बाद जो नारी है, हरिप्रसन्न उसका स्पर्श-मद प्राप्त करता है । हरिप्रसन्न सामाजिक मूर्तिमत्ता को नारी के देह-सत्य के लिए पति और मित्र संबंध के एकीकरण के नाम पर मित्र देने का प्रयत्न करता है । किंतु नारी-यथार्थ का देहसत्य हरिप्रसन्न के पुरुष को परास्त कर देता है । नारी-यथार्थ के देह-सत्य के समक्ष हरिप्रसन्न के पुरुषवाद का शस्त्र-समर्पण सृष्टि के पुरुषतंत्र के लिए एक बड़ा प्रश्नचिह्न है । यद्यपि हरिप्रसन्न सुनीता से कहता है--"तुमको चाहता हूँ, समूची तुमको चाहता हूँ, उसके बाद-".
और, सुनीता अपनी साड़ी बिल्कुल अलग कर कहती है- 'मैं यह हूँ।'
साड़ी निबंध सूनीता का त्रिगुणात्मक शब्दत्रयी-'मैं यह हूँ'-सृष्टि के मूर्तिवाद को शरीर-वास्तव की अोर निर्देशित करने में सक्षम अवश्य है। शरीर-वास्तव का नारी-सत्य जैनेन्द्र के हरि प्रसन्न, पुरुष के हरिप्रसन्न अर्थात् पुरुष को परास्त कर देता है, पुरुष दोनों हाथों से अपनी आँखें ढंक लेता है । जैनेन्द्र का हरिप्रसन्न नारी का शरीर-वास्तव नहीं, नारी के सम्पूर्णत्व की सम्यक् प्राप्ति का अभिलाषी है। साड़ीमोक्ष की 'मैं यह हूँ' प्रतिक्रिया के प्रति हरिप्रसन्न जयन्तमार्गी बन जाता है । यह हरिप्रसन्न जयन्तवाद का आरोप है।
ग्रन्थि-मोह से परिपूर्ण वातावरण में सुनीता-वृत्त का विशेष महत्व है और 'सुनीता' के वृत्तवाद में जैनेन्द्र-दर्शन है, हरिप्रसन्न-दर्शन है। हरिप्रसन्न के शब्दों में जैनेन्द्र स्वयं बोलते हैं-"वह ज़िन्दगी नहीं है, जिसमें चारों तरफ दीवारें खड़ी करके हम विश्व के बीचों-बीच अपना पक्का घर बनाकर अपने को कैद कर लेते है। विश्व