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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
के जीवितं सर्म्पक में रहना होगा । आज और कल के बीच में बन्द हम नहीं रहेगे । शाश्वत को भी छुएँगे, सनातन और अनन्त को भी हम चखेंगे। तुमने जो बनी बनाई राह सामने कर दी है, वह हमें कुछ भी दूर नहीं ले जाती । हमारा मार्ग श्रनन्त है और यह तुम्हारी राह अपनी समाप्ति पर संतुष्ट पारिवारिक जीवन देकर हमें भुलावे में डाल देती है । मनुष्य पति और पिता बनकर अपने को बाँधता है । इस प्रकार उत्सर्ग की, मुक्त और स्वाधीन जीवन की महिमा से वह अपने को दूर बनाता है ।' और भी, "घर-बार बसाकर तो ग्रादमी अपने को ह्रस्व करता है, मुझे उस राह नहीं जाना
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यहाँ हरिप्रसन्न-दर्शन उद्घाटित हुआ है । इन्हीं हरिप्रसन्न सूत्रों का एकीकरण हरिप्रसन्नवाद है । हरिप्रसन्नवाद जीवन को व्यतीतवादी दृष्टिकोण नहीं देता । वह जीवन को अर्थ संदर्भ और भाव-संदर्भ में परखता है । 'व्यतीत' का जयन्त जीवन का सम्यक् भाष्य नहीं उपस्थित करता । जयन्त में हरिप्रसन्न नहीं है । नारी की देह वास्तव परिधि के प्रति जयन्त ( ' व्यतीत ' ) और हरिप्रसन्न ( 'सुनीता' ) की भाव- कुंठा अथवा कुठावाद व्यक्ति सत्यों के आलोक में परीक्षण का विषय है ।
जिस व्यक्ति ने स्त्री को "हाँ, मैं तैयार हूँ" वेश-भूषा में ही देखा है, वह अवश्य किसी सुनीता से कहेगा कि "तुमको चाहता हूँ । समूची तुमको चाहता हूँ । उसके बाद -1" किन्तु नारी की स्वेच्छापूर्ण बाधारहित समर्पणवादी नग्नता के समक्ष वह दोनों हाथों से अपनी आँखें नहीं ढँक लेगा, कभी नहीं सोचेगा कि धरती फट क्यों न गई कि वह गड़ जाता ।
हरिप्रसन्न सुनीता को अपने अन्दर केवल सुनीता के रूप में रखता है, 'सुनीता श्रीकान्त' के रूप में नहीं । सुनीता, ऐसा मालूम पड़ता है. हरिप्रसन्न अर्थात् पुरुष मन की जीवन-ग्रन्थि है । इतिवृत्तवाद, चारित्रिकता आदि के क्षेत्रों में सुनीताग्रन्थि अर्थात् पुरुष मन की जीवन-ग्रन्थि सुनीता के उपन्यासवाद में है । श्रीमती सुनीता देवी' और 'सुनीता श्रीकान्त' विवेचन में हरिप्रसन्न के पुरुषतंत्र के नारी - सत्य थोड़ा विश्लेषण हो गया है ।
हरिप्रसन्न उत्पादक श्रम चाहता है । उत्पादक श्रम का श्रीकान्त - विवेचन मनन करने योग्य है । हरिप्रसन्न शारीरिक अस्तित्व के लिए शारीरिक श्रम पर रहना चाहता है, किन्तु उपन्यास में वह कहीं भी शारीरिक अस्तित्व के लिए शारीरिक श्रम करता हुआ नहीं पाया जाता । हरिप्रसन्न के अनुसार, “पढ़ाने के काम से जीविका पाना मैं ठीक नहीं समझता ।" क्योंकि, उसके अनुसार ' जिस श्रम का बदला आजीविका के साधन के रूप में अर्थात् से के रूप में मिले, वह श्रम शारीरिक होना चाहिए । अन्य श्रम निःशुल्क होना चाहिए ।" अतएव, वह सुनीता की बहन का