________________
जैनेन्द्र के जयवर्द्धन - पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण
२१६
निःशुल्क अध्यापन करता है । उपन्यास में ऐसा कोई स्थल नहीं है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि सत्या के अध्यापन करने में हरिप्रसन्न ने पैसे लिए । हरिप्रसन्न का श्रमवाद सिद्धान्त हरिप्रसन्न का एक पहलू है, क्योंकि 'सुनीता' का हरिप्रसन्न अपने में एक 'वाद' है । हाँ, हरिप्रसन्न जैनेन्द्र-चिंतन का एक 'वाद' है, सम्प्रदाय नहीं । 'व्यतीत' उपन्यास के आधार पर जैनेन्द्र ने व्यतीत- सम्प्रदाय का प्रवर्त्तन करने का श्रेय उठाया । हरिप्रसन्नवाद में व्यतीत-सम्प्रदाय नहीं है । यद्यपि कहा यह भी जा सकता है कि हरिप्रसन्नवाद के उत्तरार्द्ध पर व्यतीत-सम्प्रदाय का प्रतिक्रियावादी प्रभाव है । मैं यह मानता हूँ ।
'सुनीता' में श्रम का द्विमार्गी विवेचन हरिप्रसन्न और श्रीकान्त के माध्यम से किया गया है— हरिप्रसन्न श्रम सिद्धान्त और श्रीकान्त श्रम सिद्धान्त ।
जैनेन्द्र के अनेक उपन्यास अपने में एक 'वाद' है, अपने में एक विशेष मतवाद भी । प्रबुद्ध चिन्तन जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य का आधार है। 'सुनीता', 'त्यागपत्र', 'कल्याणी', 'सुखदा', 'व्यतीत' आदि उपन्यास जैनेन्द्र के प्रबुद्ध चिन्तन के प्रकाशस्तम्भ हैं । 'सुनीता' 'कल्याणी', 'सुखदा', 'त्यागपत्र' प्रादि विचार - 'सम्पुष्टि' से परिपूर्ण कृतियाँ चिन्तन के अध्याय हैं, 'वाद' हैं, श्रपने में परिपूर्ण सत्य हैं । उपन्यासकार जैनेन्द्र का विचार - साक्षात्कारवाद उपन्यास - साहित्य की परम श्रेष्ठ देन है । साहित्य को जैनेन्द्र ने उन्नयनमार्गी बनाया है ।
जैनेन्द्र-चिन्तन में कहानी के सत्य की अपेक्षा सत्य की कहानी को विशेष महत्त्व प्राप्त हो गया है । जागरूक जैनेन्द्र ने कहानी के सत्य और सत्य की कहानी में प्रबुद्ध संतुलन का निर्माण करने का सुप्रयत्न कथाकार के रूप में अवश्य किया है ।
जैनेन्द्र चिन्तन को पहले उठाते हैं, कहानी को बाद में । कथा के अंगारों को जैनेन्द्र ने चिमटे से ही पकड़ा है । कथा के अंगारों में उद्भासित विचार - साक्षात्कार की लाली की ओर ही जैनेन्द्र का ध्यान केन्द्रीभूत रहा है । जैनेन्द्र की कहानी के अंगारों में जैनेन्द्र-चिन्तन की ऊष्णता है । दर्शन की प्राशा ग्रहण करने के उपरान्त ही जैनेन्द्र अपने कथाकार के पास जाते हैं ।
'सुनीता' में श्रीकान्त कहता है- 'हरि, तुम अभी परमात्मा में विश्वास नहीं करते हो ?'
"अभी नहीं, " हरिप्रसन्न का उत्तर है ।
'लेकिन मुझे कहने तो दोगे, भगवान तुम्हें सुखी रखें ? भगवान सबको सुखी रखें' | श्रीकान्त इस पंक्ति में अपने को खोल देता है ।
इस संक्षिप्त कथोपकथन के आधार पर श्रीकान्त और हरिप्रसन्न को हम निकट से देख लेते हैं ।