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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जैनेन्द्र का साहित्यवादी साहित्यकार जीवन में सहज भाव से रहना चाहता है। निन्द्र सहज भावापन्न जीवनयापन के पोषक हैं । जैनेन्द्र-दर्शन के छात्रों को जैनेन्द्र-घोषित, जैनेन्द्र-विप्ताप्ति सहज भावापन्न जीवनयापन सिद्धान्त विरोधाभासमूलकता से परिपूर्ण मालूम पड़ सकता है, किन्तु जैनेन्द्र जीवन को प्रकृत रूप में रखना चाहते हैं । जनेन्द्र ने जीवन को प्रकृत रूप में रखा है-उन्होने जीवनयापन के प्रति सहजमार्गी भावात्मकता निवेदित की है । अतएव, जैनेन्द्र-साहित्य में ऐसे भी स्थान अवश्य हैं-जैसे सुनीता का विवस्त्र होना, 'व्यतीत' उत्तरार्द्ध में अनिता का जयंतसमर्पण आदि, जिसके आधार पर भारतीय मर्यादावाद और नैतिकवाद के अपमानित किए जाने का आरोप लगाया जा सकता है । किन्तु सच तो यह है कि जैनेन्द्र ने मर्यादा-तथ्यों और नैतिक-मूल्यों को नए मूल्य प्रदान किए हैं. जिन्हें मैं नैतिक-सत्यों का जैनेन्द्र-मूल्य कहूंगा।
हरिप्रसन्न जैनेन्द्र का एक विशिष्ट पात्र है। हरिप्रसन्न का चरित्रवाद एक विशेष दिशा-दर्शन का परिचायक है।
जनेन्द्र का चिन्तक जैनेन्द्र के उपन्यासकार का स्वामी है, विनीत सेवक नहीं । जैनेन्द्र के उपन्यास प्रतीकात्मकता से परिपूर्ण हैं । उनके मुख्य पात्रों में प्रतीकत्व का गौरव है । चिन्तन का जैनेन्द्रवाद जैनेन्द्र-साहित्य, जैनेन्द्र द्वारा निर्मित कृतियों में है। कर्तव्य की कठोरता के प्रति जागरूकता जैनेन्द्र में अवश्य है।
सुनीताकार का प्रवचन है.---'चलते ही चलना है ।' 'कल्याणी' में जैनेन्द्र के कल्याणवाद और कल्याणीवाद का सम्मिलित उदघोष है- 'चलना नाम जिन्द गी का है।' 'चलना' को जैनेन्द्र ने जीवन के विराट अर्थों में उपलब्ध किया है।
सुनीता और सुनीता की नारी-सत्ता ने शंका प्रकट की कि हरिप्रसन्न को उनके यहाँ सुख की प्राप्ति नहीं हो रही है ।
श्रीकान्त का उत्तर है-'सुख ? क्या कभी उसे सुख मिलेगा ? क्या कभी मिला है ? और सुख मिलता किसको है ?'
सचमुच, हरिप्रसन्न को कभी सम्यक सुख प्राप्त नहीं हो सका । क्या श्रीकान्त के इस सुख-विवेचन के द्वारा लेखक ने यह सिद्ध करना चाहा है कि श्रेष्ठ सुख किसी को नहीं मिल पाता? जैनेन्द्र सुखवादी अथवा दुखवादी नहीं। सुख और दुःख के प्रति जैनेन्द्र ने भारत का दार्शनिक दृष्टिकोण ग्रहण किया है । बड़े अर्थों में सुख किसी को नहीं मिल पाता, मैं स्वयं ऐसा मानता हूँ।
सुनीता, हरिप्रसन्न और श्रीकान्त में जैनेन्द्र ने अपने को खंड-खंड करके सजा देने का प्रयत्न किया है । हरिप्रसन्न जैनेन्द्र के भाग्यवाद के प्रवक्ता हैं। लगभग प्रत्येक उपन्यास में जैनेन्द्र ने अपने भाग्यवाद के प्रवक्ता को ढूंढ निकाला है। हाँ, हरिप्रसन्न