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________________ जैनेन्द्र के जयवर्द्धन पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २१५ जीवन-सामग्री यथेष्ट मात्रा में दी है । 'परख' को जैनेन्द्र की विकास- रेखानों के आलोक में परखना विशेष श्रेयस्कर होगा । इन विकास - रेखाओं से पृथक् 'परख' का मूल्य विशेष नहीं । सत्यधन 'परख' का प्रमुख व्यक्ति है । बिहारी सत्यधन के बाद दूसरा प्रमुख व्यक्ति है । नायकत्व का पद इन्हीं दो व्यक्तियों में विभाजित कर दिया गया है । सत्यधन आदर्शवाद की मूर्ति परकता को अपने में उतार लेने का प्रयास करता है । आदर्श आराधन सत्यधन का जीवन कर्त्तव्य है । सत्यधन में विचार सम्पुष्टि की गरिमा है, उन्नति नहीं । जीवन में सत्यधन उत्सर्ग का प्राराधना-स्वरूप निरूपित करता है । उत्सर्ग उन्नति का उन्नयन हो जाना है । वह अपने जीवन की रामनामी चादर पर उत्सर्ग अंकित करता है । उत्सर्ग सत्यधन के जीवन का सम्प्रदाय है । सत्यधन का उत्सर्गवाद किसी-न-किसी रूप में जैनेन्द्र के प्रत्येक उपन्यास में अवश्य उपस्थित रहा है । जैनेन्द्र ने 'परख' में सत्यधन की ओर से वकालत की - "जो हारता रहा है, हारेगा, जो जीतता रहा है, वह जीतेगा ।" सत्यधन के वकील जैनेन्द्र से मैं यह पूछना चाहूँगा कि क्या इस प्रकार का कोई संविधान जीवन में कभी निर्मित हुआ है ? सत्यधन के वकील महोदय क्या अपनी इस उक्ति का प्रमाण जीवन के इतिहास अथवा जीवन की घटनाओं के आधार पर दे सकते हैं ? मनुष्य हमेशा केवल जीतता ही नहीं, हारता भी है। और भी, मनुष्य हमेशा केवल हारता ही नहीं, जीतता भी है । मेरे इस कथन के प्रमाण जीवन की घटनाओं में ढूँढ़ लिए जाएँ । 1 'परख' के अनुसार, "दुनिया मोम की चीज़ नही, और न किताब ही है जिसे पढ़कर ख़तम कर सकते हो। यहाँ जगह-जगह टक्कर खानी पड़ती है और समझौता करना पड़ता है । जीवन दायित्व का खेल है, पग-पग पर समझौता है ।" पुनः परख' के अनुसार, "प्रेम जो कब्जा चाहता है— वैसे प्रेम की छूट समाज के लिए अनिष्टकर है। प्रेम में यदि आधिपत्य की आकांक्षा है - यह आकांक्षा कि वह मेरी है, मेरी ही है, मेरी हो जाय तो इस प्रेम में विश्वास रखो, गँदलापन है | स्वच्छ और वास्तविक प्रम इस प्रकार की श्राधिपत्य प्राकांक्षा से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता है । वह 'उस' की प्रसन्नता, उसका सुख, उसके सन्तोप की ओर सचेष्ट रहता है,, उस पर कब्जा कर लेना नहीं चाहता ।" 'परख' का उपसंहार यथार्थ के प्रादर्श प्रतिपादन के रूप में हुआ है । व्यक्तिवादी लेखक के नाम से विख्यात जैनेन्द्र ने परख परिणति में बहुजन हिताय, बहुजन - सुखाय का सुपरिचय दिया है, समष्टिहेतु आलोकवाद का दर्शन प्रतिपादित किया है । परख - परिणति में मुक्त तंत्र का सूत्रवाद है । निराला के 'अलका' उपन्यास में प्रति
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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