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श्री सिद्धेश्वरप्रसाद
जैनेन्द्र के उपन्यास
जैनेन्द्र विश्लेषण-प्रिय कलाकार हैं । वे प्रेमचन्द की तरह न तो व्यापक चित्रपट सामने लाते हैं और न उस विस्तार की आवश्यकता ही समझते हैं, बल्कि उनका विश्वास है- "इस विश्व के छोटे-से-छोटे खण्ड को लेकर हम अपना चित्र बना सकते हैं और उसमें सत्य के दर्शन पा सकते हैं" ('सुनीता' की प्रस्तावना) । समस्या-नाटकों की तरह उनके उपन्यास समस्या-उपन्यास हैं। उनके मन में समस्या के रूप में कोई चीज गुत्थी बन कर अटक जाती है और वे पात्रों के माध्यम से उसका विश्लेषण करते हैं।
जैनेन्द्र के उपन्यासों की समस्या एक ही है-नारी का सतीत्व ! नारी की और भी समस्याएं हैं ; परन्तु उनकी अोर जैनेन्द्र का ध्यान नहीं गया है । सुनीता, मृणाल और कल्याणी--तीनों एक ही व्यक्तित्व के तीन रूप हैं, तीनों की एक ही समस्या है।
जैनेन्द्र की यह समस्या क्या है ? अाज हमारे समाज में पुरुष और स्त्री दोनों के लिए पृथक्-पृथक् नैतिक मापदण्ड प्रचलित हैं । पुरुष वेदान्त का पुरुष है-सर्वथा मुक्त । नारी माया है, जिसके लिए शाश्वत बन्धन-विधान के सिवा समाज के पास और कुछ नहीं है। पुरुष जिस भूल के लिये शाबासी पाता है, नारी उसी के लिये ताड़न । इस समस्या के समाधान-पश्चिम के नारी-स्वातंत्र्य-को भी जैनेन्द्र अस्वीकार करते हैं; क्योंकि उसका आधार प्रेम और सहयोग नहीं, अधिकार-भावना की होड़ है । जैनेन्द्र मानते हैं कि व्यक्ति त्याग और कष्ट-सहन के द्वारा दूसरों को सही मार्ग पर ला सकता है-इसके लिये किसी प्रकार की हिंसक क्रान्ति को वे अस्वीकार करते हैं । इसीलिए उनके विचार से इस नैतिक समस्या का समाधान नारी के अनैतिक होने में नहीं, बल्कि कष्ट-सहन और त्याग के द्वारा अनैतिक पुरुष को नैतिक बनाने में हैं । इसे जैनेन्द्र की अतिनैतिकता माना जा सकता है। इसकी व्यावहारिकता में किसी को सन्देह हो सकता है ; पर वैसे अवसर पर जैनेन्द्र तर्क का नहीं-विश्वास का आश्रय लेंगे; क्योंकि विश्वास ही पुनर्निर्माण की शक्ति दे सकता है ।
लोगों ने जैनेन्द्र पर शरत् का प्रभाव देखा है; पर कहाँ और किस अंश मेंयह स्पष्ट नहीं किया गया है । वास्तव में कोई ऐसी बात है ही नहीं । शरत की समस्या सामाजिक अधिक है, जैनेन्द्र की समस्या नैतिक अधिक । जिस तर्क के आधार पर शरत् को प्रेमचन्द से अधिक गहराई में उतरने वाला कलाकार कहा जाता है,