Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 206
________________ १८८ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जैनेन्द्र में भी यह बात अपने सहज स्वाभाविक रूप में मिलती | पुस्तक समाप्त कर लेने के बाद भले ही जैनेन्द्र की रहस्यमयता की ओर ध्यान जाय, लेकिन बगैर समाप्त किये कहीं किसी प्रकार की रुकावट का अनुभव नहीं होता । यह अद्भुत गुरण जैनेन्द्र की विषय-वस्तु में नहीं, उनकी वर्णन-शैली में है । प्रेमचन्द का आकर्षण वर्णन शैली से अधिक सामयिक विषय का है । एक ग्रन्तर और भी है । शरत् और जैनेन्द्र भावक्षेत्र के कलाकार हैं; प्रेमचन्द अपेक्षाकृत घटना क्षेत्र के । लेकिन दो बातों को लेकर जैनेन्द्र की कला शरत् से आगे की चीज कही जायगी । वर्णन-शैली को सफल बनाने के लिये शरत् को जिस विस्तार की आवश्यकता पड़ती है, जैनेन्द्र की उससे बहुत थोड़े में ही, शायद उससे अधिक अभीष्ट सिद्धि हो जाती है । जिन थोड़े से पात्रों को लेकर जैनेन्द्र सफल कथा-सृष्टि कर पाते हैं, वह उनकी अपनी विशेषता है । जैनेन्द्र की यह सफलता और भी अधिक ऊँचाई पा जाती है, जब हम देखते हैं। कि नैतिकता जैसे सर्वथा अछूते विषय को लेकर भी वे इस सफलता के पाने में समर्थ हैं। कला की मौलिकता, विषय की मौलिकता - श्रौर उसके बाद भी उपन्यास की सरसता में कमी न आने देना, यह कोई साधारण बात नहीं है । ( २ ) जैनेन्द्र को प्रभावित करने वाले जिन स्रोतों की ओर ऊपर संकेत किया गया है, उन्हें ध्यान में न रखने के कारण ही प्रालोचकों ने परस्पर विरुद्ध बातें कहीं हैं। एक ओर श्री नन्ददुलारे वाजपेयी कहते हैं- "जैनेन्द्र जी एक भावुक कथाकार हैं ।" ( आधुनिक साहित्य, पृ० १५६ ) ; दूसरी ओर डाक्टर नगेन्द्र का मत है — " जैनेन्द्र जी में बुद्धि की तीव्रता है।" ( विचार और अनुभूति, पृ० १४४ ) ; डाक्टर देवराज कहते हैं---" कहीं-कहीं जैनेन्द्र के वाक्य पेशेवर फिलासफरों को भी लजा दे सकते हैं ।" (साहित्य-चिन्ता, पृ० १८०), "दार्शनिकता जैनेन्द्र का स्वभाव ही है ।" (वही, , पृ० १७९ ) । ऐसी अटकलें क्यों ? क्या हिन्दी - प्रालोचना अब भी भावुकता में पल रही है ? भावुक भला बुद्धिवादी और दार्शनिक क्यों होने लगा ? या, स्वभाव से ही चिन्तनप्रिय दार्शनिक का भावुकता से क्या सम्बन्ध ? जिन्हें जैनेन्द्र के प्रति एक प्रकार की अस्पष्टता की शिकायत थी, वे भावुकता की बात को ले उड़े ! जिनके सामने जैनेन्द्र की सूक्तियाँ थीं, उन्होंने उनकी दार्शनिकता को तो देखा, पर उनकी कला का मूल्य न नाँक सके ! एक ही साँस में जैनेन्द्र पर 'व्यक्तिवादी', 'मौजूदा स्थिति अथवा 'स्वीकृत मर्यादाओं के पक्के समर्थक' (साहित्य - चिन्ता, पृ० १८६), ' स्पष्ट लक्ष्य का अभाव' (वही, पृ० १८२ ) आदि आरोप करने के बाद भी जब डा० देवराज उन्हें 'एक असाधारण लेखक' (वही, पृ० १८८) कहते हैं, तब सचमुच आश्चर्य होता है । स्वभाव से जैनेन्द्र को 'पेशेवर फिलासफरों को लजाने वाले दार्शनिक' मान कर उनके

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