Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 211
________________ रमेशचन्द्र गुप्त एम. ए. जैनेन्द्र जी के साहित्यसिद्धान्त जैनेन्द्र जी हिन्दी के एक प्रौढ़ साहित्यकार के रूप में लगभग पिछली तीन दशाब्दियों से अपनी विभिन्न रचनाओं द्वारा साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं । उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के दर्शन हमें तीन रूपों में मिलते हैं - उपन्यासकार, कहानीकार, निबन्धकार | इन तीनों रूपों में उन्होंने अपने साहित्य का निर्मारण दर्शन एवं मनोविज्ञान के आलोक में किया है । हिन्दी का कोई अन्य कलाकार इस दृष्टि से उनके समकक्ष नहीं ठहरता । दार्शनिकता से अनुस्यूत होने के कारण जैनेन्द्र जी का साहित्य सरलतापूर्वक समझ में थाने की वस्तु नहीं है । और शायद यही कारण है कि उनके साहित्य की पर्याप्त समालोचना भी अभी नहीं हो पाई है । यों इस दिशा में स्वतन्त्र पुस्तकें अथवा स्फुट लेख समय-समय पर प्रकाशित अवश्य होते रहे हैं, किन्तु अभी इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता बराबर बनी हुई है । प्रस्तुत निबन्ध में हमने हिन्दी के इस प्रबुद्ध विचारक की साहित्यिक मान्यताओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है । कोई भी प्रौढ़ साहित्यकार एक निश्चित जीवन-दर्शन का प्रतिपादन करने के साथ-साथ साहित्य-सृजन के सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों का समर्थक होता है । प्रतिपाद्य विषय एवं अभिव्यंजना-शैली के सम्बन्ध में उसकी निजी मान्यताएँ होती हैं | साहित्य के विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में अपनी इन विशिष्ट धारणाओं को दृष्टि में रख कर ही वह अपनी रचनाओं का निर्माण करता है । अतः किसी साहित्यकार के कृतित्व का मूल्यांकन करते समय हमें उसके साहित्य - सिद्धान्तों से परिचित रहना अत्यंत आवश्यक है | साहित्यकार की अन्तर्दृष्टि से अपरिचित होने पर प्रमाता उसके प्राशय को ग्रहण करने में भूल कर सकते हैं । अत: जैनेन्द्र जी के साहित्य-सिद्धान्तों का यह आकलन उनके पाठकों की बोध-वृत्ति को परिष्कृत करने में निश्चय ही सहायक सिद्ध होगा । कहानी - उपन्यास लेखन और प्राचार्यत्व में क्रमश: भाव-तत्त्व और विचारतत्त्व प्रमुख होने के कारण बड़ा अन्तर है । साहित्य के सिद्धान्त-निर्धारण का सम्बन्ध अनिवार्यतः श्राचार्यत्व से ही है ।' जैनेन्द्र जी अपने मूल रूप में प्राचार्य या १. देखिए, 'आधुनिक हिन्दी कवियों के काव्य-सिद्धान्त' (डा० सुरेशचन्द्र गुप्त, पु०२०)

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