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जैनेन्द्र जी के साहित्य-सिद्धान्त
१६५ गुजारने लगा । जहाँ यह है, वहाँ भाषा का व्यभिचार है। वैसा लिखना केवल लिखना है । वह साहित्य नहीं है।'
____एक अन्य लेख में युग के प्रतिनिधि साहित्य पर विचार करते हुए उन्होंने लिखा है----'इन समस्यायों को जो साहित्य आगे नहीं लेता वह अपने कर्तव्य से गिरता है और प्रतिनिधि साहित्य नहीं हो सकता ।"२
स्पष्ट है कि जैनेन्द्र जी को जीवन से अनपेक्षित रहने वाले साहित्य की कल्पना मान्य नहीं है । उपन्यासकार प्रेमचन्द की भांति उन्होंने भी जीवन को साहित्य के प्राधार-रूप में मानते हुए उसे 'जीवन की आलोचना' के रूप में स्वीकार किया है। (२) साहित्य का उद्देश्य
जैनेन्द्र जी ने साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन को न मानकर जीवन के सत्य की खोज को माना है। उनका कहना है कि, “अन्तिम सत्य का जितना मार्मिक उद्घाटन जिस रचना द्वारा मुझे मिले , उतना ही अधिक मैं उसके प्रति कृतज्ञ होता हूँ।... 'सत्यानुसन्धान की इस वृत्ति को लेख में पहले खोजता हूं।'' वस्तुतः सत्य का प्रतिपादन करने वाले व्यक्ति की सभी मानसिक उलझनें अनायास ही समाप्त हो जाती हैं । इसी कारण जैनेन्द्र जी ने साहित्य-सृजन द्वारा प्राप्त होने वाली मानसिक शान्ति की ओर संकेत करते हुए साहित्य के श्रेय के सम्बन्ध में लिखा है . “साहित्य का पहला श्रेय है जीवन का लाभ । अपनी अंतरंगता की स्वीकृति और प्राप्ति, अपने भीतर के विग्रह की शान्ति, उलझा की समाप्ति और व्यक्तित्व की उत्तरोत्तर एकत्रितता ।"४
जैनेन्द्र जी ने साहित्य का एक अन्य उद्देश्य माना है 'मानव-मन को उदात्त बनाना । यदि साहित्य हमारे मिथ्या राग-द्वेष से जड़ीभूत मन को मुक्त करके विशुद्ध ग्रानन्द-लोक में मग्न नहीं करता तो वह सच्चा साहित्य नहीं है-"जो हमारे भीतर की अथवा किसी के भीतर की रुद्ध वेदना को, पिंजर-बद्ध भावनाओं को रूप देकर प्रकाश के प्रकाश में मुक्त नहीं करता है, जिसमें अपने 'स्व' का सेवन है और दान नहीं है, वह भी साहित्य नहीं है ।"५ साहित्य की इस महता को प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी अपने साहित्य-निर्माण का लक्ष्य' शीर्षक लेख में इस प्रकार स्वीकार किया है- 'साहित्य इसलिए बड़ा नहीं है कि उसमें गद्य, पद्य, छन्द, कथा, कहानी
१. 'साहित्य और साधना' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रय, पृ० ७४) २. 'प्रतिनियित्व या उन्नयन' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रय, पृष्ठ ५७) ५. 'कुछ विचार' (प्रेमचन्द), पृष्ठ ६ तथा ७३ ४. मेरे साहित्य का श्रेय और प्रेय' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ १८.) ५. 'स्थायी और उच्च साहित्य' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ ३३३)