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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
अपनी जन्मजात उदंडता के अाधार पर उचित-अनुचित सभी कुछ कह डालते हैं। जैनेन्द्रजी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि जो भी उन्हें अपने मन में सत्य जंचता है, वे उसके प्रकाशन में लेशमात्र भी संकोच नहीं बरतते । इसी से वे समाज के लिए प्रतिक्रियावादी और समस्या प्रधान से बन जाते हैं और मित्रों के लिए अप्रिय ।।
जैनेन्द्रजी के उपन्यासों, कहानियों और उनके प्रवचनों पर जब कभी चर्चा छिड़ती है तो मेरा उत्तर यही रहता है कि मैं तो भाई साहिब को घर के बुजुर्ग की हैसियत से ही देखता हूँ। और यह बात बिलकुल सच है। श्रद्धेय पिताजी गतवर्ष जिस दिन डाक्टर महाजन के नसिंग होम में दाखिल हुये, उसी दिन से भाई साहब का यह नित्य प्रति का क्रम-सा हो गया था कि पिताजी के स्वर्गारोहण के दिन तक वे रोज दो-दो घन्टे उनकी रोगशैया के पास बैठे रहते ।।
वे महात्मा नहीं है। जैसा वे बार-बार कहते हैं, उनमें बहुत-सी कमियाँ भी हैं, पर उनमें एक विचित्र-सा आकर्षण है । वे कोमल हैं और सहृदय हैं, बेहद दर्जे के और अपनी मुसीबतों को खुद ही झेलने के आदी बन गये हैं। अपनी समस्याओं को लेकर वे पोरों से बहुत ही कम बोलते हैं । मन ही मन घुटना मानो उन्हें बहुत पसन्द है।
___अंग्रेजी वे धारा-प्रवाह बोलते हैं, पर कितना विस्मय और अपार प्रानन्द मुझे उस दिन नैनीताल से लौटने पर हुआ, जब मैं उनके घर गया तो डाक्टर रघवीर के साथ सम्मेलन की चर्चा चल गई । भाई साहिब ने स्वतंत्र रूप में खुलकर कहा कि मैं उर्दू-हिन्दी के विवाद को महत्त्व देने से भी कहीं अधिक महत्त्व अंग्रेजी को राष्ट्र-भाषा बनाने के विरोध को देता हूँ। इससे स्पष्ट है कि उनका अनन्य हिन्दी प्रेम उनको राजनैतिकता की दलदल से कहीं ऊपर उठा ले जाता है ।
___जैनेन्द्रजी दूर विदेशों में घूमे फिरे हैं, उनका ज्ञान अपरिसीम है और सामान्य व्यक्ति को तो उनकी सादगी को देखकर उनके ज्ञान का अनुमान तक लगा सकना मुश्किल होता है।
कई बार मुझे स्वयं ही ऐसी आशंका हो उठती है कि जनेन्द्रजी को सर्वथा बन्धनहीन होना चाहिये था, लेकिन वस्तु-स्थिति तो यह है कि यह क्रियाशील, राहृदय और साधनारत साहित्यिक हर प्रकार से प्राज इन बंधनों से ऊपर उठ चुका है । यो दुनियाँ दिखावे को वे इन बन्धनों से घिरे भले हों, पर उन पर वातावरण और परिस्थितियों का कोई विशेष बन्धन नहीं है। दुनियां मति-भ्रम और दि भ्रम दूर होने पर एक दिन इस सत्य का अनुभव अवश्य करेगी।