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जैनेन्द्र कुमार का कथा-साहित्य होते हैं । उनकी इस प्रकार की कहानियों में मनोविज्ञान के विश्लेषणात्मक सिद्धान्तों के दर्शन होते हैं । अवश्य ही इस प्रकार की कहानियों में कभी-कभी पाठक उलझासा महसूस करता है । परन्तु उनकी कुछ कहानियां सत्य, मनोतत्व, धर्म और समाज के आधार पर इतना सुन्दर प्रकाश डालती हैं कि पाठक बरबस रुक कर उन्हें पढ़ने और उनसे कुछ उठा लेने के लिए बाध्य हो जाता है। लेकिन कुछेक कहानियों के विश्लेषण से पाठक को ऐसा लगता है मानो वह स्वयं ही अपने चारों ओर रेशमी जाल बुनता चला जा रहा है, जिसके नीचे वह स्वतः फंसता जाता है और जो कुछ वह पढ़ना चाहता है । वह स्वतः उसके लिये एक दुर्गम पहेली बनती जाती है । कभीकभी तो ऐसा लगता है कि लेखक स्वयं ही सीमा का अतिक्रमण करना चाहता है, परन्तु उसका चिन्तन अभिव्यक्ति का पथ नहीं प्राप्त कर पाता । हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कहानियाँ समाज के लिये लिखी जाती हैं । यदि साधारण जनता की पहुँच के वे बाहर हो जाती हैं तो उनकी उपादेयता ही संदिग्ध हो जाती है । इस प्रकार की कहानियों को सफल कहानी कहां तक कहा जा सकता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है । उदाहरण के लिए चेहरा नामक कहानी का अध्ययन किया जा सकता है ।
जैनेन्द्र जी ने कुछ कहानियों में एक अस्पष्ट-सी समस्या खड़ी कर दी है । उदाहरणार्थ "वह चेहरा सदा-सदा अवतरण लेता है । निश्चय ही, निश्चय ही वह एक रूप नहीं है, एक रंग नहीं है । पर सदैव वह एकात्मा है । नियुक्त समय पर वह सबको दीखता है और शायद घर-घर होता है । यह चेहरा आँखों के भीतर पहुँचे बिना नहीं रहता और वहाँ से फिर वह मिटना नहीं जानता।" (वह चेहरा) सामाजिक दृष्टिकोण के पाठक ऐसी रचनाओं से अधिक संतुष्ट नहीं होते, क्योंकि जहाँ एक ओर वह अपने साहित्य का स्तर ऊँचा उठाते हैं, वहाँ उनका सम्बन्ध साधारण जीवन से टूटता प्रतीत होता है । उनकी रचनाएँ साधारण जीवन की उपयोगिता को खोती चली जाती हैं और जिन विशेष परिस्थितियों का चित्रण वे करते हैं, उनका सम्बन्ध समाज से टूट जाता है। (यज्ञदत्त शर्मा-हिन्दी-गद्य का विकास । पृष्ठ ६१)
जैनेन्द्रजी की कहानी साधारणतया सरल होती है और सरलता में भी सजीव लगती है, क्योंकि उसमें एक जन-जीवन का स्पन्दन संचालित होता रहता है, परन्तु जब जैनेन्द्रजी का दार्शनिक उपस्थित हो जाता है, तब भाषा में जटिलता सहज ही
आ जाती है तथा भाषा की स्वाभाविक गति में बाधा उत्पन्न हो जाती है। भले ही सामान्य पाठक उनकी दार्शनिक तथा विचित्र भंगिमा (भाषा की दृष्टि) से अन्तर्मख हो जाने और न समझने के कारण जैनेन्द्रजी की कला के प्रति ऊंची धारणा का निर्माण कर ले, परन्तु सावधान पाठक और आलोचक इसे दौर्बल्य की स्थिति ही मानेंगे।
निश्चय ही कहीं-कहीं तो अत्यंत ही अनावश्यक रूप से लेखक ने दार्शनिकता