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जैनेंद्र जी के नारो पात्रों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठ-भूमि ७७ विचारधारा को दार्शनिकता के आवरण से प्रावृत किया है, वहीं उनकी उत्तरकालीन रचनाओं में ये बीच के व्यवधान पूर्णतः दूर होते गये हैं।
जैनेन्द्र के सभी नारी पात्रों में विचित्र प्रकार का मानसिक द्वन्द्व चलता रहता है । सामाजिक परम्परा, सामाजिक व्यवधान और विचारों में वैषम्य के कारण ही यह स्थिति दीख पड़ती है । उनकी कला-कृतियाँ सामाजिक और मानसिक द्वन्द्व से टकराकर ऊपर उठने का यत्न करती हैं, यह एक स्वस्थ लक्षण है।
जैनेन्द्र जी का दार्शनिक व्यक्तित्व उनके मानसिक और सामाजिक व्यक्तित्व से बराबर संघर्ष करता चल रहा है। इस संघर्ष में अन्त में कौन विजयी होगा, यह कह सकना कठिन है, क्योंकि जैनेन्द्र जी सच्चे अर्थों में प्रगतिशील हैं और उनकी रचनामों में मनोवैज्ञानिक चिन्तनों का क्रमिक विकास निरन्तर होता चल रहा है ।