Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 152
________________ जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा १३३ करना बहुत आवश्यक है । हर भक्त, दार्शनिक और कवि ने ईश्वर का जो गुणानुवाद किया है, उसका यही रहस्य है । यही आस्तिकता है । इस दृष्टि से नास्तिकता एक अर्थहीन उक्ति बन जाती है और किसी को भी नास्तिक समझना असंगत प्रतीत होने लगता है । प्राणि-जगत् और भूत-प्रकृति परस्परता का दूसरा रूप है, प्राणि-जगत् और भूत- प्रकृति की परस्परता । ब्रह्म और विविध ग्रह-घटकों के बीच के सम्बन्ध लीला - प्रधान हैं, पर जीव और प्रकृति की परस्परता का सार तत्त्व उपयोगिता है | चेतन प्राणी अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिए प्रकृति का उपयोग करता है । प्रकृति जीवों की प्राण-शक्ति को और उनकी वृत्तियों को पुष्ट बनाती है । जीवों का प्रकृति से जो भावमय सम्बन्ध प्रकट है, वह लीला पर नहीं, उपयोग पर आधारित है । जीव प्रकृति का ही उपयोग नहीं करते, अन्य हीनतर जीवों का भी उपयोग करते हैं। वे उनको खाते हैं । मानव की उपयोग क्षमता प्रकृति और मानवेतर प्राणियों तक ही सीमित नहीं है । मानव अन्य मानवों का भी विधिवत् शारीरिक, ग्रार्थिक, मनोवैज्ञानिक उपयोग अथवा शोषरण करता है । मानवेतर प्राणियों द्वारा उपयोग इंस्टिवट - नियमित होता है, जब कि मानवीय उपयोग प्रणालियाँ बुद्धि- नियमित होती है । मानवों- मानवेतर जीवों और प्राकृतिक तत्त्वों की परस्परता में से ही जीव-विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, रसायन, चिकित्सा, भौतिकी भूगर्भ विज्ञान, धातु-विज्ञान, यन्त्र- विज्ञान और नाना प्रकार के शिल्प आदि उपजे हैं । विद्युत्, गंसीय और अणु-उद्जन शक्तियों का विकास भी इसी परस्परता की देन है । जैनेन्द्रजी इन वैज्ञानिक उपलब्धियों को ब्रह्म-जीव और मानव-मानव की परस्परता के स्वस्थ विकास के लिए उपयोगी मानते हैं । वे धर्म और विज्ञान को विरोधी नहीं, परस्पर पूरक घोषित करते हैं । यह वाद भावना और लीला तक पहुँचने के लिए सीढ़ी है, उसके मार्ग की जैनेन्द्रजी का मानना है कि विज्ञान ने मानव को जो गति की तीव्रता प्रदान की है, उसने शिक्षा और सहानुभूति का जो अप्रतिम विस्तार किया है, उससे मानव-मानव के निकटतर आया है और दूरी नगण्य बन गई है । उसी के कारण विभिन्न अन्तराष्ट्रीय संस्कृति सभ्यतात्रों का सम्मिलन सम्मिश्रण सम्भव हो पाया है, जिसके फलस्वरूप एक विश्व-सभ्यता का विकास धीरे-धीरे हो चला है । अणु-युद्धों द्वारा अन्तिम प्रलय का जो संकट आज मानव के सिर पर मँडरा रहा है, उसके लिए विज्ञान नहीं सामूहिक तल पर हमारी अपरिष्कृत मानसिकता और विस्तृत श्रहं चेतनानों के संघर्षशील वृत्त (राष्ट्रवाद, पूँजीवाद, समाजवाद आदि) ही उत्तरदायी हैं । जैनेन्द्रजी उपयोगितावाद के पीछे अहं का उदात्त समर्पण देखना चाहते हैं । इस प्रकार कर्मवाद 1 भौतिक उपयोग बाधा नहीं ।

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