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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व श्लील और नैतिक का अर्थ समाज-संगठन की अनुकूलता और अश्लील-अनैतिक का अर्थ उसकी अननुकूलता बन जाता है। ये अनुकूलताएँ अननुकलताएँ देशकाल-परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनीय हैं और उन्हें समाज का व्यावहारिक स्थल अस्थायी आधार ही माना जा सकता है । सूक्ष्म आधार परस्परता है और उसे ही जैनेन्द्रजी स्थायी तत्त्व मानते हैं। अक्सर समाज की नीतियाँ-रूढ़ियाँ परस्परता को अर्थात प्रेम को अपनी टक्कर में देखती मानती हैं। इसलिए परम्परावादी नीति परस्परतावाद अर्थात् प्रेम को अश्लील और अनैतिक घोषित कर बैठती है । परस्परता की दृष्टि से सच्ची श्लीलता और नैतिकता अहं की मानव-मात्र की ओर उन्मुखता है, जब कि संगठनवाद यह दर्जा व्यक्ति अथवा संगठन की स्वनिष्ठता को देता है । परिवार सबसे छोटा संगठन है । प्रश्न उठता है कि परिवार चहारदीवारी में ही बन्द रहे या शेष समाज से अपना खुला सम्बन्ध रखे । परम्परावादी भी मानते हैं कि शेष से परस्परता स्थापित किये बिना जिया नहीं जा सकता । पर वे परस्परता का अधिकार केवल पुरुष को देना चाहते हैं । स्त्री की परम्परता उन्हें अनैतिक, अश्लील, अधार्मिक मालूम पड़ती है । प्रश्न है कि जब पुरुष का परस्परताविस्तार उसे और उसके परिवार को समृद्ध करता दीखता है, तब स्त्री का आत्मविस्तार उसे विपन्न क्यों करेगा ? जैनेन्द्रजी के अनुसार हम भूल करते हैं, जब विप. रीत-लिंगियों में परस्परता, आत्मीयता का अर्थ हम अनिवार्य रूप से कामुकता लगा लेते हैं । स्त्री-पुरुष के परस्पर आकर्षण को काम कहा जाता है । समाज-संगटन के उद्देश्य से, काम के नियमन के लिए, विवाह-संस्था की स्थापना हुई, जिसका नैसगिक परिणाम हुआ सपरिवार । परिवार के दम्पति और अन्य व्यसक कितनी सीमा तक विपरीत लिंगियों के सम्पर्क में आये ? देखना होगा कि दाम्पत्य विशेष, परिवार विशेष किस पर टिका है, स्थूल मर्यादा पर अथवा हृदय के समर्पण अर्थात् प्रेम पर ? प्रेम पर टिके दम्पति को एक-दूसरे पर पहरा लगाने की आवश्यकता नहीं होगी। उनमें परस्पर विश्वास होगा । वे शेष संसार को अपने विरोध में नहीं पायेंगे और यथाशक्ति अपनी आत्मीयता के विस्तार में नहीं हिचकेगे । यदि कभी स्खलन होगा भी, तो प्रेम समाधान ढ़ढ़ लेगा। स्खलन का अनुताप उनके प्रेम को
और सुदृढ़ ही करेगा । जहाँ मर्यादा को महत्त्व मिलता है, वहां कामुकता पौर शरीर सम्भोग मूल्य और उनके प्रति आकर्षण बढ़ जाता है । बन्दिशें बढ़ती हैं और ग्रन्थियाँ गुणनुगुरिणत होती हैं । जिस भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के उद्देश्य से विवाह-संस्था बनायी गयी थी, वही भूगर्भ में पनपता और फैलता है। जैनेन्द्र समाज
और परिवार को मर्यादा अथवा समान हित पर आधारित न करके व्यक्ति-व्यक्ति के हार्दिक प्रेप और समर्पण पर स्थिर करना चाहते हैं । उनका विश्वास है कि