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डाक्टर त्रिभुवनसिंह
यथार्थ और उपन्यासकार जैनेन्द्रकुमार
हिन्दी कथा-साहित्य में जिस यथार्थ चित्रण का सफल प्रवर्तन मुंशी प्रेमचन्द जी ने किया, वह सामाजिक परिवेश में व्यक्ति के बाह्य क्रिया-कलापों का चित्रण मात्र बनकर रह गया था। विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों, राष्ट्रीय आन्दोलन से उत्पन्न विषम-समस्याओं एवं सुधारवादी आन्दोलनों के सम्पर्क में लाकर अपने चरित्रों के माध्यम से प्रेमचन्द जी तत्कालीन परिस्थितियों; आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विषमताओं का यथार्थ एवं विश्वसनीय चित्र तो उतार चुके थे, पर व्यक्ति के अन्तर्मन में चलने वाले संवर्षों एवं अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच उसके बदलने वाले संकल्पों का चित्र उतारना अभी शेष था, जिसकी ओर दृष्टि डालने का उन्हें अवकाश ही नहीं मिला । युग की इस आवश्यकता की ओर भी उपन्यासकारों की दृष्टि गई और हम देखते हैं कि प्रेमचन्द की रचनाओं के ही गर्भ से जैनेन्द्र-साहित्य का एक सोता फूट निकला जिसका आगे चलकर स्वतंत्र विकास हुअा है।
आगे चलकर मनोवैज्ञानिक अथवा मनोविश्लेषणात्मक शैली को आदर्श मानकर लिखने वाले उपन्यासकारों का जो एक ऐतिहासिक आगमन हुआ, जैनेन्द्रजी को उस कोटि में तो नहीं रखा जा सकता, पर उन्हें पथ-दृष्टा के रूप में अवश्य स्वीकार किया जा सकता है । इन्होंने अपने उपन्यासों के अन्दर मनुष्य समाज की अपेक्षा एक परिवार अथवा व्यक्ति के यथार्थ चित्रण पर अधिक बल दिया और इस समय तक इसकी आवश्यकता भी आ पड़ी थी । सन् १६३६ के आस-पास, जो प्रेमचन्द की समाप्ति का काल था, युग की परिस्थितियों में परिवर्तन उपस्थित हो चुका था । प्रेमचन्द जी के रचना-काल में जो राजनैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक अवस्थायें थीं; उनमें बहुत कुछ सुधार किया जा चुका था। यह युग जागरण के कारण नवीन मोड़ ले रहा था । प्राचीन रूढ़ि-प्रस्त परम्परामों-एवं सामाजिक आदर्शो की निस्सारता प्रकट हो जाने तथा उनके निराकरण के उपयुक्त समाधानों के अभाव में नवीन प्रतिभायें नूतन मार्ग ढूढ़ने लग गयीं। जैनेन्द्र जी की दृष्टि यद्यपि उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भावनाओं के चित्रण करने की अोर अत्यधिक गई, फिर भी उन्होंने प्राचीन सामाजिक सिद्धान्तों की चहार-दीवारी के
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