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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व में स्वभावतया स्वीकृत है । प्राकृतिक तत्त्व-भूत इस खुदा के गुलाम हैं । उनसे खुदा का दूर का भी खून का सम्बन्ध नहीं है । ऐसे खुदा को तात्त्विक विवेचन एवं वैज्ञानिक विश्लेषण का विषय नहीं बनाया जा सकता। उसके अदृश्य अस्तित्व और अमानवीय पौरुष पर ईमान ही लाया जा सकता है । पैगम्बरवाद और पवित्र ग्रन्थवाद भी मानवीय जिज्ञासा का पनपना और फलित होना सहन नहीं कर सकते । कथित-लिखित वचनों-स्थापनाओं की यह दीवार इतनी पक्की बन जाती है कि उनके बौद्धिक-वैज्ञानिक परीक्षण करने और नवोपलब्ध ज्ञान के आधार पर उन में घटा-बढ़ी करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । सबसे बड़ी बात यह है कि मान्य पैगम्बर के अतिरिक्त अन्य कोई भी सम्बुद्धिशील, उच्चात्मा, ऊर्वचेता हो सकता है, यह सम्भावना ही शत-प्रतिशत अस्वीकृत बन जाती है । ज्ञान-विज्ञान का विकास किसी एक के नहीं, अगणित ऋषियों के सम्मिलित प्रयास का फल ही हो सकता है। पैगम्बरवाद में धर्म और दर्शन अनिवार्यतः रूढ़ उपासना-पद्धति का रूप लेकर अनुदार, हठवादी पुजारियों और पण्डितों की सम्पत्ति बन जाते हैं और ज्ञान-विज्ञान की अनन्तता से उनका सम्पर्क नहीं हो पाता । इतिहास में मध्ययुग को जो अन्धयुग कहा जाता है, वह बहुत-कुछ उपयुक्त विशेषता के कारण ही। ऋषियों का उन्मुक्त चिन्तन
भारत में धर्म और दर्शन का प्रारम्भ बहुदेववाद और बहुऋपिवाद से हुआ। इन्द्र, वरुण, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का मौलिक रूप अभौतिक नहीं, शतांश में भौतिक है । विभिन्न भौतिक तत्त्वों एवं हलचलों को ही वहाँ देवी-देवता के रूप में अंगीकार किया गया है । उनको लेकर जो कहानियाँ गथी गयीं, वे उनकी मूल प्रकृति एवं प्राचरण से निरपेक्ष नहीं है। पौराणिक युग में निश्चय ही देवी-देवताओं का भौतिक रूप बहुत अधिक प्रोझल बन गया। कितने ही साम्प्रदायिक, सांस्कृतिक, कलात्मक आर्थिक तत्व इनमें आ मिले और सामयिक समस्याओं की दृष्टि से भी इनमें यथासमय उलटफेर किये गये। इस प्रकार औपनिषदिक युग के बाद से वैदिक देवीदेवता विशुद्ध भौतिक न रहकर भाव-कल्पना-निर्मित इष्टसिद्धि के रूप (Deities) बनते चले गये। पर औपनिषदिक युग तक के इन देवी-देवताओं का और उनकी अर्चा में किये जाने वाले यज्ञों का बौद्धिक-वैज्ञानिक महत्त्व स्पष्ट है । उपनिषत्कार ऋषियों ने जिस सर्वोच्च देवता परमब्रह्म की स्थापना की, वह भी पैगम्बरवादियों का पिता या बादशाह खुदा नहीं है, बल्कि वह परम तत्त्व है, जो अन्य सभी भौतिक तत्त्वों से सूक्ष्मतम है, उन सबमें निहित, व्याप्त और उन सबसे शक्तिशाली है। वह शून्यवत् है, अरूप है और रूप अर्थात् भौतिक पिण्ड उसमें से बने हैं, यह नहीं कि उसने बनाये हैं । उपनिषदों का ब्रह्म व्यक्तिमय (Personified) एवं भूत-निरपेक्ष