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प्राचार्य डाक्टर नगेन्द्र
'त्यागपत्र' और 'नारी'
प्रेमचन्द जी के सभी उपन्यास हिन्दी के मूर्धन्य पर आसीन होने योग्य नहीं हैं । 'गोदान' उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति है । उसके अतिरिक्त 'ग़बन', 'सेवासदन', 'रंगभूमि' आदि में भी बहुत-कुछ है जो अमर रहेगा । हिन्दी में इनसे टक्कर लेने वाले उपन्यास बहुत नहीं प्रकाशित हुए । जो हुए वे उँगलियों पर गिने जा सकते हैं, जैसे 'त्यागपत्र', 'नारी', 'चित्रलेखा', 'शेखर' इत्यादि ।
समय और सुविधा को देखते हुए यहाँ मैं श्री जैनेन्द्र कुमार के 'त्यागपत्र' और श्री सियारामशरण गुप्त के 'नारी' उपन्यासों को लूगा । ये दोनों उपन्यास मुझे काफ़ी प्रिय हैं । इनमें कुछ इस प्रकार की समता और विषमता है जो तुलनात्मक अध्ययन को रोचक और उपयोगी बना देती है।
त्यागपत्र और नारी दोनों ही में एक नारी की कहानी है। त्यागपत्र एकमात्र मृणाल की व्यक्तिगत कहानी है, और नारी जमुना की। मृणाल और जमना दोनों के ही व्यक्तित्वों के मूल में अतृप्ति है । दोनों ही हमारे सन्मुख एक अभुक्त वासना लिये आती हैं । मृणाल के तो जीवन का ही प्रारम्भ इस अतृप्ति से होता है। उसके माता-पिता नहीं हैं । भाई का स्नेह उनके स्नेह की कमी को भर नहीं पाता। उसको स्नेह की भलक एक दूसरे व्यक्ति से मिलती है । पर मिलने के साथ ही वह एक तीखा घाव छोड़कर सदा के लिए मिट जाती है। भावज की कठोर ताड़ना उस अभाव की अग्नि को और भी भड़काती है, और अन्त में उसका बेमेल विवाह एवं पति की यन्त्रणाएँ इस जीवन-व्यापी अतृप्ति में पूर्ण आहति बन जाती हैं । इस प्रकार वासना पूर्णतः अभुक्त और अतृप्त रहकर उसके जीवन में एक अद्भुत गति और शक्ति का संचरण करती है । जीवन के मध्याह्न तक तो उसे इस वासना के संस्कार का उचित माध्यम नहीं मिल पाता, और वह एक उद्दाम तीव्रता लिये झुलसती और झुलसाती-जीवन को मानों चीरती हुई-भटकती रहती है । बीच में वह पातिव्रत की बात करती है, अपने पति के साथ समझौते का प्रयत्न करती है, एक अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति---कोयले वाले-के साथ ममता का खेल करती है, पत्नीधर्म के निर्वाह का दावा करती है । पर यह सब कुछ जैसे एक तीखा व्यंग्य है । सचमुच चारों ओर से नकार प्राप्त कर मृणाल का जीवन ही एक तीव्र व्यंग्य बन गया है।
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