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'त्यागपत्र' और 'नारी' सजग और पैना है कि उनकी सादगी, विनम्रता और सरलता को चीरता हुआ क्षणक्षण सामने या जाता है । इसलिये अपने प्राप्य के लिये उनको सियारामशरण की अपेक्षा अधिक संघर्ष करना पड़ता है । उनके जीवन में संघर्ष अधिक है, ठीक उतना ही अधिक जितना मृणाल के जीवन में जमुना की अपेक्षा । सियारामशरणजी में हृदय का अंश अधिक है, वे अधिक आस्तिक हैं । जैनेन्द्रजी में बुद्धि की तीव्रता है, अतएव उनके मन में सन्देह का संघर्ष अधिक है। इसीलिये जैनेन्द्र अधिक व्यक्तिवादी हैंसियारामशरणजी में सामाजिकता की भावना अधिक है। सियारामशरणजी के लिए अहिंसा का आदर्श कुछ सीमा तक प्राप्त भी है, परन्तु जैनेन्द्रजी के लिये अभी वह एक प्राप्य-मात्र है । उनकी जागरूक मेधा और उससे भी अधिक जागरूक अहंकार स्वभाव से ही अहिंसा के आत्म-निषेध के प्रतिकूल हैं। इसीलिये उनको उसके प्रति आग्रह अधिक है । यही कारण है कि उनके उपन्यास में संघर्ष तीखा और सशक्त है।
मेरी पानी धारणा यह है कि साहित्य की शक्ति और तीव्रता उसके स्रप्टा के अहं की शक्ति और तीव्रता के अनुसार ही होती है । दुर्बल अहं अथवा किसी भी कारण से दबा हुआ अहं, यहाँ तक कि घुला हुआ अहं भी, आर्द्रता की ही सृष्टि कर पाता है, शक्ति की नहीं । निदान त्यागपत्र में जहाँ तीव्रता है वहाँ नारी में प्रार्द्रता है।
शैली में भी दोनों का सम्बन्ध है जो उनके व्यक्तित्व में-यानी त्यागपत्र की शैली में तीखापन और वक्रता है, नारी की शैली में कोमलता और सरलता है । त्यागपत्र को कहानी जैसे दिल और दिमाग को चीरती हुई आगे बढ़ती है, और नारी की कहानी को सुनकर जैसे पीड़ा मधुर-मधुर घुल उठती है । त्यागपत्र की शैली में कठोर निर्ममता है, उसके कुछ क्षणों की निर्ममता तो असह्य है । अगर आपके सामने कोई व्यक्ति मुह की रंगत को बिगाड़ता हुआ तकलीफ़ के साथ जहर पीता हो तो
आप कैसा महसूस करेंगे? और अगर यही व्यक्ति बिना किसी प्रकार के भावपरिवर्तन के गम्भीरता के साथ ज़हर को गट-गट कर जाय, तो आपको कैसा लगेगा? मृणाल की कुछ आत्म-यन्त्रणाएँ ऐसी ही हैं । इसके विपरीत नारी की शैली में घरेलू स्निग्धता है । जमुना प्रात्म-व्यथा में विश्वास करती हुई भी अपने प्रति स्निग्ध और करुण है । अतएव नारी की कहानी में कोमल-स्निग्ध गति है। उसमें हृदय को स्पर्श करने वाले स्थल अनेक हैं, हृदय को चीरने वाले स्थल नहीं हैं । नारी की यह करुण कहानी हल्ली के बाल-सुलभ क्रिया-व्यापारों से मन बहलाती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ती है-यहाँ तक कि कहीं-कहीं इसकी गति मन्द पड़ जाती है और पाठक सोचता है कि हल्ली के ये खेल और मुक़दमे कुछ कम होते तो अच्छा था, क्योंकि कहीं-कहीं वे कहानी को उलझा लेते हैं। नारी की कहानी का यह दोष उसके प्रभाव में बाधक होता है।
इन दोनों कहानियों की गठन में एक-एक स्थल ऐसा मिलता है जहां पाठक