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जैनेन्द्र के उपन्यास-साहित्य में शिल्प रूप रूप को आधार बना कर अनेक औपन्यासिक कृतियों की रचना की, जो इसकी व्यापक संभावनाओं के द्योतक हैं।
सन् १९३६ में “कल्याणी" का प्रकाशन हुआ । यह उपन्याग भी "त्यागपत्र" की ही भांति अात्मकथात्मक शैली में लिखा गया है, परन्तु यह उपन्यास भी इस प्रकार की शैली में लिखे गये सामान्य उपन्यासों की अपेक्षा कुछ भिन्नता रखता है। साधारणत: इस शैली में जो उपन्यास लिखे जाते हैं, उनमें कथा के प्रधान अथवा किसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण पात्र की ओर से ही कथा का संपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया जाता है, परन्तु इस उपन्यास की कथा का प्रस्तुतकर्ता एक गौण पात्र है। उपन्यास की प्रधान पात्री श्रीमती असरानी हैं। उन्हीं के नाम पर उपन्यास का नामकरण भी हुआ है । कथा के प्रस्तुतकर्ता ने अपने कुछ परिचितों की जीवन-गाथा के रूप में रह कहानी सामने रखी है। चूंकि वह स्वयं कथानक में प्रधानता नहीं रखता, इसलिये अपना दृष्टिकोण भी वह अधिकांशतः तटस्थ रखने का प्रयत्न करता है । इसी कारण कथानक के विकास-चक्र में कहीं-कहीं कुछ ऐसे अंश आ गये हैं, जो उसके प्रवाह की गति-भंग कर देते हैं ।
कल्याणी महत्त्वाकांक्षिरणी है और अपने विद्यार्थी-जोवन में इंग्लैंड में एक ऐसे युवक से प्रणय कर बैठी थी, जो अब एक प्रसिद्ध नेता और प्रीमियर था । भारत लौटने पर वह संभवतः उसी से विवाह भी करता, परन्तु डा० असरानी नामक एक व्यक्ति की धूर्तता के कारण वैसा नहीं हो पाता । कल्याणी विवशता अनुभव करके डा० असरानी से ही विवाह कर लेती है । अब वह पति की नीचता का सही परिचय पाती है । वह उन्हें इस सीमा तक नीच देखती है कि व्यवसाय लाभ के लिये अपने नारीत्व की भी बाजी लगा देने की बात उनकी ओर से प्रस्तावित पाती है। वह एक विचित्र मानसिक संघर्ष की स्थिति में रहती है । इस प्रकार से उसका चरित्र रहस्यमयता और नाटकीयता से प्रावृत्त प्रतीत होता है । इस उपन्यास की यह रहस्यमयता और नाटकीयता जैनेन्द्र के लगभग सभी उपन्यासों से मिलती-जुलती है, परन्तु कल्याणी का चेतना और अन्तर परिस्थिति से विद्रोह करता है । इस संघर्ष में उसे अपना बलिदान करना पड़ता है । इसलिये यह उपन्यास शिल्प-रूप की दृष्टि से इस कारण से भी विशिष्टता रखता है कि इसमें अप्रधान पात्र के माध्यम से भी प्रधान पात्री की जीवन-गाथा का इतने प्रत्यक्ष और प्रभावशाली रूप में वर्णित किया जा सकना संभव हो सका।
"सुखदा' उपन्यास का कथानक घटनाओं के वैविध्य के बोझ से आक्रान्त है। सखदा नामक उपन्यास की कथा का व्यावहारिक रूप से प्रारम्भ उसके स्वयं अपनी कहानी लिखने से होता है । पैतीस वर्ष की आयु तक पहुँची हुई सुखदा अपने आपको अब खोखला-सा अनुभव करती है, वह सभी ओर से निराश और टी हुई है, अपने