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'त्यागपत्र' और 'नारी'
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हैं । यह उपन्यास -शिल्पी का अद्भुत कौशल है । इसीलिए जब कभी जैनेन्द्रजी सादगी में आकर टेकनीक या शिल्प से सर्वथा प्रबोध होने की बात करने लगते हैं तो हंसी ग्रा जाती है ।
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उधर सियारामशरणजी का लक्ष्य - कम-से-कम नारी में एक सीधी-सच्ची करुण-स्निग्ध कहानी ही रहा है । उन्होंने जागरूक होकर प्रभाव को तीव्र करने का प्रयत्न नहीं किया, या किया है तो इतने हल्के हाथों से कि वह लक्षित नहीं होता । उदाहरण के लिये ग्राप वह स्थल ले सकते हैं जहां एक दूसरा व्यक्ति जमुना के जीवन में प्रवेश करता है और जमुना उसे समर्पण कर देती है । यह सब ऐसे होता है जैसे कुछ हुआ ही न हो । पाठक के मन में जमुना के जीवन का यह महत्त्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार सरक जाता है कि वह बिलकुल नहीं चौंकता । इसके विपरीत प्राप मृणाल का समर्पण लीजिये । उसमें कितना व्यग्य है, कितनी कचोट है, कितनी तीव्रता है ! उसके जीवन का यह तथ्य पाठक के मन को चीरता हुआ, उसकी वृत्तियों को भनभनाता हुआ, प्रवेश करता है ।
त्यागपत्र का कौशल अपनी विदग्धता के बल पर अपने मेधावी शिल्पी की दुहाई देता है, और नारी का कौशल अपने को छिपाकर अपने स्नेहार्द्र शिल्पी की सिफ़ारिश करता है ।