________________
५८
जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व कतिपय मनोविश्लेषक यह कहते हैं कि जैनेन्द्रकुमार ने जिस प्रकार की सामाजिक अाधार रहित साहित्य-मृष्टि की है, उसके मूल में स्वयं लेखक की पलायन-वृत्ति, दुःखवादी (Salistic) धारणा और अतृप्त वासना काम करती है । यह कहा जा सकता है कि इस पलायन-वृत्ति को जैनेन्द्रकुमार ने एक दार्शनिक प्रावरण दे रवखा है। उनके प्रमुख चरित्र अपने को दार्शनिक चोले में प्रकट करते हैं । त्यागपत्र की मृणाल स्थान-स्थान पर इस दार्शनिकता को लेकर प्रस्तुत होती है; परन्तु प्रश्न यह है कि क्या उक्त दार्शनिक प्रावरण से जैनेन्द्रजी की वास्तविक मनःस्थिति और उसके अाधार पर निर्मित होने वाली चरित्रों और पात्रों की वास्तविकता छिपाई जा सकती है ? जब पूर्ण रचना का अनुशीलन करने पर भी पाठक के हाथ कुछ नहीं लगता तब इस प्रश्न की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि जैनेन्द्रकुमार की करुणा और उनकी संवेदना के चित्रण की असलियत क्या है । करुणा किसके लिए और क्यों ? यह प्रश्न उनकी रचनाओं में प्रायः कोई समाधान नहीं पाता । इन कारणों से समीक्षकों का यह अारोप कि जैनेन्द्रकुमार अत्यधिक व्यक्तिवादी, रहस्यात्मक तथा काल्पनिक उपन्यासकार हैं तथा उनके उपन्यासों का सामाजिक प्रभाव अत्यन्त संदिग्ध है, अनुचित नहीं कहा जा सकता।
प्रेमचन्द का साहित्य यत्र-तत्र दूसरी अति पर पहुँच गया है । वे एक सामा. जिक उपदेष्टा और प्रचारक के रूप में उपस्थित होते हैं । व्यक्ति की मानसिक स्थितियों का चित्रण करने में वे उतने कुशल नहीं हैं। वास्तव में वह उनका मुग्य ध्येय ही नहीं है । यह भी कहा जाता है कि नारी-चरित्र का निर्माण करने में प्रेमचन्दजी प्रायः सफल नहीं हुए । प्रेमचन्दजी के आदर्शवादी लक्ष्य के अनुरूप न होने के कारण अनेक साहित्यिक आवश्यकताओं की उपेक्षा हो गई है । प्रेमचन्दजी के उपन्यासों में यत्र-तत्र बोभीलापन अधिक हो गया है । वे कहीं किसी विषय की चर्चा करने लगते हैं, तो उसे इतना विस्तार दे देते हैं कि वह पाठक के धैर्य का परीक्षक बन जाता है । वर्णनों के विस्तार द्वारा वे कथा को अत्यधिक खींच डालते है, जिसमें एक प्रकार का असंतुलन दिखाई पड़ने लगता है । कला की दृष्टि से इन त्रुटियों को स्वीकार करना पड़ता है। प्रेमचन्द के चरित्र-चित्रण में भी वर्गगत चित्रण की ही प्रमुखता है । उनके पात्र भिन्न-भिन्न वर्गों के प्रतीक बन जाते हैं । इसे भी सृजन की वास्तविक मौलिकता के लिये बाधक ही कह सकते हैं; परन्तु इन अपवादों के रहते हुए प्रेमचन्दजी का अनुभवक्षेत्र विस्तृत है। पात्रों की बातचीत कौशल के साथ कराने की उनकी क्षमता असाधारण है; उच्च आदर्शों की ओर उनकी प्रवृत्ति अबाध है । वे हिन्दी के महान् और असाधारण उपन्यासकार और कथालेखक का सर्वमान्य पद अधिकृत करते हैं । कला की दृष्टि से जैनेन्द्रजी की रचनाएं उन अनेक दोषों से विमुक्त हैं, जिनका उल्लेख