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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व कि चिन्ता का विषय बन गई थी। पर गुरुकुल के डाक्टर ने यह समभ.दारी ही की कि इनको बीमार नहीं समझा और उसकी एक वजह यह भी थी कि इस कम खुराकी में भी इनका एक साथी था, और वह इनसे भी कहीं आगे था। वह तो दिन भर में पतली-पतली चार रोटियों से ज्यादा नहीं खाता था, दूध भी बहत ही कम पीता था। पर उसकी कम खुरी की वजह यह थी कि वह तीन-तीन चार-चार रोज़ टट्टी नही जाता था। पर जैनेन्द्र के साथ तो यह बात नहीं थी। यह ठीक है कि गुरुकुल का खाना काफी भारी होता.था, पर वह तो सभी के लिये था। उसकी उम्र के और बाद आये छोटे ब्रह्मचारी भी जैनेन्द्र से सवाया और ड्योढ़ा खा सकते थे । बस कम खाने की बात को सिर्फ इसलिये चिन्ता की बात नहीं समभा गया कि खेलकद में जैनेन्द्र पूरा हिस्सा लेते थे और अगर सब में अव्वल नहीं थे तो सब से पीछे भी नहीं थे।
गरुकल में शतरंज खेलना मना न था। मना कैसा, एक तरीके से खिलाया जाता था। और उसे किसी हद तक जरूरी समझा जाता था। हां, उसके दिन और वक्त नियत थे । शतरंज के खेल में जैनेन्द्र कई अध्यापकों से भी अच्छा खेल लेते थे।
किसी वजह से जैनेन्द्रकुमार को अपनी तालीम पूरी किये बिना गुरुकुल छोड़ना पड़ा और सन् १८ में मास्टर बलवंतसिंहजी के पास बिजनौर में रहकर पंजाब मैट्रिक की तैयारी की। और जिस साल गांधीजी के पकड़े जाने की वजह से दिल्ली में गोली चली, उसी साल पंजाब मैट्रिक का इम्तहान दिया और इत्तफाक से दिल्ली टाउन हाल पर जिस वक्त गोली चली थी, उस वक्त चौदह बरस के जैनेन्द्रकुमार वहीं मौजूद थे और उस गोली-कांड को ऐसे देखते रहे मानों उसके लिये वह एक मामूली खेल था ।
मैट्रिक करने के बाद वह बनारस यूनिवर्सिटी में दाखिल हो गये और सन् २० में जब असहयोग आन्दोलन ज़ोरों के साथ शुरू हुआ, तब इन्होंने अपने मामा को एक पत्र लिखा कि वह कालेज छोड़कर आन्दोलन में हिस्सा लेना चाहते हैं । जिसके जवाब में उनके मामा ने लिखा कि होना तो यह चाहिये था कि तुम मुझे खबर देते कि तुमने कालेज छोड़ दिया है, न कि यह कि तुम मुझसे कालेज छोड़ने की इजाज़त चाह रहे हो । इस खत को पाकर इन्होंने वही किया जो करने के लिये वह खत उन्हें भिड़क रहा था। जैनेन्द्रकुमार का इरा वक्त सोलहवां वर्ष चल रहा था।
जैनेन्द्रकुमार का इससे आगे का जीवन बालकपन की हद से परे चला जाता है, इसलिये इसको हम यहीं खत्म करते हैं।