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बरफ से ढकी एक झील : एक साहित्यकार
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की कोशिश कर रहा हूँ। नहीं, नही, जिसकी अपनी ही थाह नही । जो सड़यों पर दिन भर भ्रमित-सा भटकता है, राजधानी की बड़ी-बड़ी ऊँची दीवारों से टकराता है, गिरता है, फिर उठता है, घड़ी भर किसी घने पेड़ की छांह पर बैठकर माथे पर उभरा पसीना पोंछता है, फिर आगे की राह टटोलता है ।--भला यह क्या थाह लेगा।
"काम क्या करते हो ?" “समझिए कोई नहीं । कहानियां लिखकर जी लेने की सोचता है । और-"
सामने से ठहाका उठता है । -जैसे बर्फ से ढकी झील पर विशाल पत्थर लुढ़क-ढुलक कर धमाके से गिरा हो ।
"कहानियाँ लिखकर-" फिर सन्नाटा छा जाता है ।
अधखिचड़ी वालों पर परेशानी से हाथ फिरता है। माथे पर मोटी-मोटी सिलवटें उभरती हैं। चेहरे पर धूप-छाँह की तरह कोई विचार ग्राता है. फिर विलीन हो जाता है । ओंठ किंचित् खुलते हैं, फिर भिच पाते हैं । चश्मे की प्रोट में घिरी आँखों पर अजब-सा सूना भाव उभर आता है, फिर प्रोझल हो जाता है "क्या कहा ? कहानियाँ लिखकर ।"
+ लगता है ऋतु बदल गई है अब, किन्तु दिन-रात की वही भागम-भाग । आदमियों के जंगल में कहीं मैं खो न जाऊँ।-डर लगता है । पसीने से भीगा शरीर जैसे मोम की तरह गल रहा है । मैं शीशे के सामने खड़ा होता हूँ। देखता हूँ- शरीर दिन-प्रति-दिन छीजता जा रहा है । मेरे सचित सपन-सुहाने अाकाश कुसूम की तरह अदृश्य हो रहे हैं । मैं कहानियाँ लिखता हूँ। बस, कहानियाँ लिखूगा । मैं समझौता नहीं कर सकता । घर वापिस नहीं जा सकता।
हाँ, फिर वही कमरा है। --नीलम की तरह नीला। वैसे ही चुप खड़ा नीला ग्लोब । नोली छत, नीली दीवारें, नीले पर्दे ।
-कैसी बात है। परमात्मा ने मनुष्य को एक मुह दिया है तो दो हाथ भी तो ! ...
___--प्रादमी जितनी महनत करता है, हमेशा उससे कम पारिश्रमिक पाता है।
- "-- तुम्हारे घर में कौन है ?"
मैं जैसे जगता हूँ---- मां है ।" बड़ी मुश्किल से कह पाता हूँ । मेरा जीवन न मालूम क्यों खिन्न हो पाता है । ग्लोब पर फिर मेरी पलके निपक पड़ती हैं । मैं विस्फारित विवश नेत्रों से देख रहा हूं-ग्लोब घुमता क्यों नहीं।