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बरफ से ढकी एक झील : एक साहित्यकार
२१ न जाने कौन-सी विदेश-यात्रा है। तैयारी हो चुकी है । शिशिर के दिन हैं । धुधला है । कुहामा है । लोग फूल मालाएं लिए कार की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन यह क्या
यह कौन-सा कुर्ता पहन लिया । प्रास्तीन पर से बिल्कुल फट गया है। - अरे भई, सब ठीक है । क्या धरा है कपड़ों में ।
फूलों से ढंकी देह, फटा कुर्ता, विदेश यात्रा । एक साहित्यकार-हिन्दी का... । प्रेमचन्द की पीढ़ी का।
और याद आता है । बहुत वर्ष पूर्व हुए एशियाई लेखक सम्मेलन के दिनों में देखता हूँ
--भई, पालम जाना था, रूसी डेलिगेशन को लेने ।
"लेकिन--कार से एक भला मानष दब गया । बीच सड़क पर बेचारा घबराकर भागने लगा । गाँव का मालूम होता है । ..''
सुना, कार रोकी । दुर्घटनाग्रस्त आदमी को अस्पताल में भरती करवाया । खद पुलिस के पास पहुँचकर अपनी रिपोर्ट दर्ज करवाई । ड्राइवर को भी बर शा नहीं।
फिर---- “भई 'प्रदीप' । जोशी कोई है।" "... " "भई सम्मेलन जाना था। कुछ पैसे-वैसे हैं।" ...........!" "कुछ तो होंगे।"
"बस, बस । इतने से काम निकल जाएगा। बहत हैं।"
कहते हैं साहित्यकारों ने साहित्य की दौड़ में ही भाग नहीं लिया, बत्कि कारों की दौड़ में भी । मैं ऐसे हज़ारों को जानता हूँ जो सीलन भरे कुएं से निकल कर आलीशान फ्लैटों में चले गए हैं।
बहुत से धीर-गम्भीर, सुधी सज्जन भी इस स्पुतनिक-युग' में पीछे नहीं रहे हैं । आर्थिक, सामाजिक, साहित्यिक हर तरह की प्रतिष्ठा की ऐसी मजबूत किलेबंदी की है कि प्रलय का ज्वार भी उन्हें ढहा नहीं सकता।
___ लेकिन देखता हूँ । सोचता हूँ-ग्राज भी वही किराये का नीला कमरा है । वही नीले पर्दे, वही धूल से ढंका नीला ग्लोब । वैसा ही। रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं।