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- श्राग से जला घाव समय पाकर अच्छा हो जाता है पर वचन का घाव सदा ही हरा बना रहता है। ( 13.9 )
- सदाचार सुख सम्पत्ति का मूल है। ( 14.8 )
- ईर्ष्यालु कभी फलता-फूलता नहीं । ( 17.10 )
- झूठ और चुगली द्वारा जीवन व्यतीत करने से मृत्यु भली । ( 19.3)
- महापुरुष उपकार का प्रति उपकार नहीं चाहते । ( 22.1 )
-जीवों को मारना क्रूरता है किन्तु उनका मांस खाना उससे भी बड़ा पाप है । (26.4) वास्तव में आचार्य कुन्दकुन्द सच्चे अर्थों में ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहनेवाले साधु थे, इसलिये वे इतने विपुल साहित्य का निर्माण करने में समर्थ हो सके । जो कुछ उन्होंने लिखा स्वपरहितार्थ लिखा, शास्ता और शासित दोनों के कल्याणार्थ लिखा । वे दीपक की भांति स्वपरप्रकाशी थे ।
उन द्वारा प्रदत्त ज्ञान प्राज भी संसारांधकार में भटकते हुए प्रारणी का अपने प्रखर प्रकाश से मार्गदर्शन कर रहा है ।
जो कुछ भी उन्होंने लिखा बिना किसी भय अथवा लालच के लिखा और यथार्थ लिखा, मायाचार से रहित होकर लिखा इसीलिए 'प्राप्तस्तु यथार्थवक्ता' एवं 'यो यत्रा - वञ्चकः स तत्राप्तः' प्राप्त के ये दोनों लक्षण उनमें घटित होते हैं । इसीलिए भगवान् महावीर और गौतम गणधर के पश्चात् आज भी वे जन-जन की श्रद्धा और भक्ति के पात्र हैं ।
उनके देय से उपकृत समाज ने उनकी द्विसहस्त्राब्दि मनाने का निश्चय किया वह उचित ही था । जैनविद्या का यह 10-11वां संयुक्तांक संस्थान की ओर से उस विराट् प्रायोजन में छोटा सा योगदान है जिसमें जाने-माने विद्वानों और मनीषियों द्वारा उनके विशाल व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर यत्किञ्चित् प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है । आशा है पाठकों को यह आत्मरंजक होगा ।
इस अंक के लिए जिन विद्वान लेखकों की रचनाएं प्राप्त हुई हैं हम उनके प्रभारी हैं, भविष्य में भी इसी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा है । इसके सम्पादन - प्रकाशन में प्रदत्त सहयोग के लिए डॉ. कमलचन्द सोगाणी, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर तथा श्री भंवरलाल पोल्याका, सुश्री प्रीति जैन आदि सहयोगी कार्यकर्ता धन्यवादार्ह हैं ।
मुद्रण के लिए फैण्डस प्रिन्टर्स परिवार के प्रति धन्यवाद ज्ञापित है ।
ज्ञानचन्द्र विन्दूका संयोजक
जनविद्या संस्थान समिति