________________ * (28 ) होते है 18 अभिजातत्वम्-वक्ता के प्रतिपाद्य का अथवा भूमिका अनुसारिता होती है अर्थात् शुद्ध वाक्य होता है। 16 अतिस्निग्धमधुरत्वम्-अति स्नेह युक्त और अत्यन्त मृदु वाक्य होता है, जो श्रोता जनों को अत्यन्त सुख-कारी होता है तथा जैसे-अमृत वा शर्करादि पदार्थ मृदु आदि गुणों से युक्त होते हैं उसी प्रकार श्रीभगवान् का वाक्य श्रोताओं को हितकारी होता है। _20 अपरमर्मवेधित्वम्-श्रीभगवान् के वाक्य में किसी का मर्म प्रगट नहीं किया हुआ होता-अर्थात् वह वाक्य किसी के मर्म को प्रगट करने वाला नहीं होता, अपितु शान्त रस का देने वाला होता है।। 21 अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वम्-श्रीभगवान् का वाक्य अर्थ और धर्म से प्रतिवद्ध होता है। क्योंकि-जो निरर्थक वाक्य होते है, वे अर्थ और धर्म से रहित होते हैं, परंच सार्थक वाक्य उसे ही कहा जाता है जो अर्थ और धर्म के स्वरूप को प्रतिपादन करने वाला होता है। ___22 उदारत्वम्-अभिधेय अर्थ को पूर्णतया प्रतिपादन करने वाले वाक्य का श्रीभगवान् उच्चारण करते हैं। तथा गुम्फ गुण विशेषहोता है। 23 परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वम्-श्रीभगवान् के वाक्य में आत्मप्रशंसा और परनिन्दा नहीं पाई जाती, क्योंकि-जो वीतरागी श्रात्मा होते हैं: उनके वाक्य उक्त गुण वाले ही हुआ करते हैं / यदि स्ववाक्य में आत्म-प्रशंसा और परनिन्दा पाई जावे तो वे अनाप्त वाक्य जानने चाहिएं। 24 उपगतश्लाघत्वम्-उक्त-गुण-योग्यता से ही श्लाघता प्राप्त होती है। अर्थात् श्रीभगवान् का वाक्य तीन लोक में श्लाघा प्राप्त करता है। 25 अनपनीतत्वम्--श्रीभगवान् का वाक्य कारक, वचन, काल. लिंगादि व्यत्यय रूप वचन दोष से रहित होता है अर्थात् वाक्य सुसंस्कृत होता है। क्योंकि-यावत्काल कारक, काल, वचन, औरलिंगादि से सुसंस्कृत (निर्दोष) नहीं होगा, तावत्काल वह वाक्य अभीष्ट अर्थ की सिद्धि प्रदान करने में असमर्थ सिद्ध होता है। 26 उत्पादिताच्छिन्न कौतूहलत्वम्-स्वविषय में श्रोताजनों को अविच्छिन्नता से कौतुकभाव उत्पन्न करता अर्थात् श्रीभगवान् का वाक्य श्रोता जनों के हृदय में आश्चर्य भाव उत्पन्न करने वाला होता है / 27 अद्भुतत्वम्-अद्भुत भाव का उत्पन्न करने वाला होता है। 28 अनतिविलम्बितत्वम्-व्याख्यान करने की शैली अतिविलम्व पूर्वक नहीं होती और नाहीं अति शीघ्रता पूर्वक होती है, परंच प्रमाण पूर्वक व्याख्यान