________________ ( 197 ) उनकी यथोचित रक्षा न करना ये क्रियाएं हैं इन से प्रथम व्रत में दोष लगता है / अतएव उक्त पांचों प्रधान दोषों से रहित प्रथम अनुव्रत का पालन करना चाहिए। थूलाओ मुसावाबाओ वेरमणं ठाणागसू-स्थान 5 उद्देश // 1 // जव प्रथम अनुव्रत का पालन किया जाए फिर द्वितीय अनुव्रत को शुद्धतापूर्वक पालन करना चाहिए / कारणकि-सत्यव्रत सर्व व्रतों में परम प्रधान है, आत्मविशुद्धि का परमोत्कृष्ट मार्ग है, लोक में प्रत्येक गुण काभाजन है। परन्तु सत्यवत के भी दो भेद हैं, जैसेकि-द्रव्यसत्य और भावसत्य / दृढ़ प्रतिज्ञा का ही नाम द्रव्य सत्य है, और जो षट् द्रव्यों के गुण पर्यायों को भली भांति जानना है तथा उन्हीं पर्यायों के अनुसार सत्य भाषण करना है उसे भावसत्य कहाजाता है / अतएव भाव सत्य के लिए ज्ञानाभ्यास वा शाखश्रवण का अभ्यास अवश्यमेव करना चाहिए / सो श्रावक के सम्यक्त्व व्रत के होजाने से भावसत्य तो होता ही है, परन्तु द्रव्यसत्य के लिये शास्त्रकार ने स्थूल शब्द दे दिया है। क्योंकि-गृहस्थावास में रहते हुए गृहस्थ से सर्वथा मृपावाद का त्याग तो हो ही नहीं सकता / अतएव वह स्थूल मृषावाद का तो त्याग अवश्य कर दे / जैसेकि 1 कन्यालीक-कन्याओं के लिये असत्य भाषण न करे। 2 गवालीक-गौ आदि पशु वर्ग के लिये असत्य न वोले। 3 भूम्यलीक-भूमि के लिये असत्य का भाषण न करे। 4 न्यासापहार-किसी ने विश्वास-पात्र पुरुष जान कर विना साक्षियों के वा विना लिखत किये वस्तु को धरोहर रख दिया जब उसने वह वस्तु मांगी तो कह देना कि मुझे तो उक्त पदार्थ की खबर ही नहीं है, न मैने उस पदार्थ को देखा है इत्यादि वातें करना / 5 कूटसाक्षी-असत्य साक्षी देना इत्यादि अनेक भेद स्थूल मृषावाद के हैं।सोदूसरे अनुव्रत के पालन करने वाला उक्त प्रकार के असत्य भाषणों का परित्याग कर दे। फिर इस व्रत की शुद्धि के पांच अतिचारों (दोषों) का भी परिहार करदे / जैसेकि तयाणन्तरं चणं थूलगस्स मुसावाय वेरमणस्स पञ्च अइयारा जाणियन्चा न समायरियव्या तंजहा-सहसाअभक्खाणे रहसाअभक्खाणे सदारमंतभेए मोसोवएसे कूडलेह करणे। उपासकदशाग सू. श्र. // 1 // भावार्थ-जब प्रथम अनुव्रत का खरूप अवगत हो जावे तव द्वितीय