________________ कायक्लेश तप-केश लुंचन वा योग आसनादि लगाने // 5 // प्रति संलीनता तप-इंद्रियां वा कषायादि को वशीभूत करना // 6 // अभ्यन्तर तप प्रायश्चित्ततपकर्म-जब कोई पाप कर्म लग गया हो तब अपने गुरु के पास जाकर शुद्ध भावों से उस पाप की विशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त धारण करना // 1 // विनय तप-गुरु श्रादि की यथायोग्य विनय भक्ति करना // 2 // वैयावृत्य-गुरु आदि की यथायोग्य सेवा भक्ति करना // 3 // स्वाध्यायतप-शास्त्रों का विधिपूर्वक पठन पाठन करना // 4 // ध्यानतप-आर्तध्यान और रौद्र ध्यान को छोड़ कर केवल धर्मध्यान वा शुक्ल ध्यान के प्रासेवन का अभ्यास करना // 5 // कायोत्सर्गतप-काय का परित्याग कर समाधिस्थ हो जाना // 6 // इन तप कर्मों का सविस्तर स्वरूप उववाई श्रादि शास्त्रों से जानना चाहिए / सो इन तपों द्वारा कर्मों की निर्जरा की जा सकती है। अतएव इसी का नाम निर्जरातत्त्व है। बंधतत्त्व-जिस समय प्रात्मा के प्रदेशों के साथ कर्मों की प्रकृतियो का सम्बन्ध होता है उसी को बंधतत्व कहते हैं / सो उस वंधतत्त्व के मुख्य चार भेद हैं जैसे कि प्रतिबंध--पाठ कर्मों की 148 प्रकृतियां हैं उनका आत्मप्रदेशों के साथ बंध हो जाना // 1 // स्थितिबंध-फिर उक्त प्रकृतियों की स्थिति का होना वही स्थितिबंध होता है // 2 // अनुभागबंध-आठों कर्मों की जो प्रकृतियां हैं उनके रसों का अनुभव करना // 3 // प्रदेशवंध-पाठ कर्मों के अनंत प्रदेश हैं तथा जीव के असंख्यात प्रदेशों पर कमों के अनंत प्रदेश ठहरे हुए हैं। क्षीरनीरवत् तथा अग्निलोहपिएडवत् // 4 // ___ मोक्षतत्त्व-जब आत्मा के सर्व कर्म क्षय होजाते हैं तब ही निर्वाणपद कीप्राप्ति होती है। परन्तुस्मृति रहे कि-सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रद्वाराहीसकर्मक्षय किये जासकते हैं। कर्मक्षय होने के अनन्तर यह प्रात्मा शुद्ध, युद्ध, अजर, अमर, पारङ्गत, परम्परागत, निरंजन, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तथा अनंत शक्ति युक्त होकर निज स्वरूप में निमग्न होता हुअाशाश्वत सुख में सदैव विराजमान होजाता है। अतएव प्रत्येक प्राणी को संसार के