Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Author(s): 
Publisher: 

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ ( 278, रूपातीतध्यान / ध्याता इसे ध्यान में अपने को शुद्ध स्फटिकमय सिद्ध भगवान् के समान देखकर परम निर्विकल्प रूप हुआ ध्यावे / शुक्लध्यान धर्मध्यान का अभ्यास मुनिगण करते हुए जव सातवें दर्जे (गुणस्थान) से पाठवें दर्जे में जाते हैं तव शुक्लध्यान को ध्याते हैं। इसके भी चार भेद है... पहले दो साधुनों के अन्त के दो केवलज्ञानी अरहन्तों के होते हैं। १पृथक्त्ववितर्क विचार-यद्यपि शुक्ल ध्यान में ध्याता बुद्धि पूर्वक शुद्धात्मा में ही लीन है तथापि उपयोग की पलटन जिसमें इस तरह होवे कि मन, वचन काया का आलम्बन पलटता रहे, शब्द पलटतारहे व ध्येय पदार्थ पलटता रहे वह पहला ध्यान है / यह पाठवें से ११वै गुणस्थान तक होता है। (२एकत्ववितर्कअविचार-जिस शुक्ल ध्यान में मन, वचन, काय योगों में से किसी एक पर, किसी एक शब्द व किसी एक पदार्थ के द्वारा उपयोग स्थिर होजावे / सो दूसरा शुक्लध्यान 12 वें गुणस्थान में होता है। (3) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-अरहन्त का काय योग जव १३चे गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म रह जाता है, तब यह ध्यान कहलाता है। (4) व्युपरतक्रियानिवर्ति-जब सर्व योग नहीं रहते व जहां निश्चल, आत्मा होजाता है तब यह चौथा शुक्ल ध्यान १४वें गुणस्थान में होता है / यह सर्व कर्म बंधन काटकर आत्मा को परमात्मा या सिद्ध कर देता है / * इस प्रकार सिद्ध श्रात्माओं के ही अजर, अमर, ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, पारंगत, सिद्ध बुद्ध, मुक्त इत्यादि अनेक नाम कहे जाते हैं। जिस प्रकार संसार अनादि कथन किया गया है उसी प्रकार सिद्ध पद भी अनादि माना गया है। अपितु जिस प्रकार एक दीपक के प्रकाश में सहस्रों दीपकों का प्रकाश परस्पर एक रूप होकर ठहरता है ठीक उसी प्रकार जहां पर एक सिद्ध भगवान् विराजमान हैं वहाँ पर ही अनंत सिद्धों के प्रदेश परस्पर एक रूप होकर ठहरे हुए हैं। "जत्थ एगो सिद्धो तत्थ अणंत भवस्त्रयविप्पमुक्का अरणोऽन्नसमोगाढ़ा पुठ्ठासव्येलायत' सिद्धान्त में वर्णन किया गया है कि जहाँ पर एक सिद्ध विराजमान है वहाँ पर अनंत सिद्ध भगवान् विराजमान हैं और उनके अात्म प्रदेश परस्पर इस प्रकार मिले हुए हैं जिस प्रकार सहस्रों दीपकों का प्रकाश परस्पर सम्मिलित होकर ठहरता है तथा जिस प्रकार एक पुरुष * ध्यान का विशेष स्वरूप शुभचन्द्राचार्य कृत ज्ञानार्णव ग्रन्थ में देखें। / या हेमचन्द्रचार्य कृत योग शास्त्र में देखा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328