Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
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Page 310
________________ ( 286 ) दधि (कठिन जल ) फिर उसके ऊपर पृथ्वी। सो पृथ्वी के ऊपर बस और स्थावर जीव रहते हैं, नरकों का पूर्ण सविस्तर स्वरूप देखना हो तो श्रीजीवाभिगमादि सूत्रो से जानना चाहिए। सो जब जीवनरकों में जाता है तब उस आत्मा का नरक गति परिणाम कहा जाता है। जव तिर्यग् गति मे जीव गमन करता है तब वह तिर्यग् गति परिणामी कहा जाता है परन्तु पृथ्वीकायिक.अप्कायिक, तेजोकायिक, वायु कायिक, वनस्पतिकायिक ये पांचों स्थावर तिर्यग्गति में गिने जाते हैं / फिर दो इन्द्रिय वाले जीव जैसे सीप शंखादि, तीनों इन्द्रियों वाले जीव जैसे पूँ, लिक्षा, सुरसली, कीड़ी आदि, चतुरिन्द्रिय जीव जैसे मक्खी मच्छर विच्छु आदि, पांच इन्द्रियों वाले जीव जैसे गौ, अश्व हस्ती मूषकादि तथा जल में रहने वाले मत्स्यादि जीव स्थल में रहने वाले जैसे-गौ अश्वादि, आकाश में उड़ने वाले जैसे शुकाहस कागादि यह सर्व जीव तिर्यग्गति में गिने जाते हैं। इनका पूर्ण विवरण देखना हो तो प्रज्ञापनादि सूत्रों से जानना चाहिए / सो जव जीव मर कर तिर्यग् गति में जाता है तव उस समय उस जीव का तिर्यग्गति परिणाम कहा जाता है / इस वात का भी ध्यान रखना चाहिए कि तिर्यग् गति मे ही अनंत श्रात्मा निवास करते रहते है और अनंत काल पर्यन्त इसी गति में कायस्थिति करते हैं। यदि पाप कर्मों के प्रभाव से जीव इस गति में चला गया तो फिर उस का कोई ठिकाना नहीं है किवह आत्मा कव तक उस गति में निवास करेगा क्योंकि-अनंत काल पर्यन्त जीव उक्त गति में निवास कर सकता है। यदि मोक्षारूढ़ न हुआ तो उक्त गति में अवश्य गमन करना होगा अतएव मोक्षारूढ होने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। जब आत्मा शुभाशुभ कर्मों द्वारा मनुष्य गति में प्रविष्ट होता है तय उस का मनुष्यगति परिणाम कहा जाता है / मुख्यतया मनुष्यों के दो भेद है जैसेकि-कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज / असि ( खड्गविधि ) मषि (लेखन विधि ) कसि (कृपीविधि ) इत्यादि शिल्पो द्वारा जो अपना निर्वाह करते हैं उन्हें कर्मभूमिक मनुष्य कहते हैं। उनके फिर मुख्य दो भेद हैं आर्य और म्लेच्छ (अनार्य)। फिर उक्त दोनों के बहुतसे उपभेद हो जाते हैं। . द्वितीय अकर्मभूमिक मनुष्य है जो अपना निर्वाह केवल कल्पवृक्षों द्वारा ही करते है अपितु कोई कर्म नहीं करते। उनके भी बहुतसे क्षेत्र प्रतिपादन किये गए हैं / तृतीय सम्मूच्छिम जाति के मनुष्य भी होते हैं जो केवल मनुष्यों के मल मूत्रादि में ही सूक्ष्म रूप से उत्पन्न होते रहते हैं। मनुष्य के मलमूत्रादि में होने से ही उनकी भी मनुष्य संज्ञा हो जाती है। इस प्रकार मनुष्यों के

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