________________ ( 245 ) क्षणविनश्वर वाद दोनों चाद ही युक्तियों के सहन करने में अशक्ल हैं। अब इसी वात को शास्त्रकार वर्णन करते हैं जैसेकिएएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारोण विज्जई एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं तु जाणए / सूत्रकृतागसूत्र द्वितीयश्रुतस्कन्ध अं. 5 गा. // 3 // दीपिका-(एएहिति ) एताभ्या एकान्तं नित्यं एकान्तमनित्यं चैति द्वाभ्या स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते / एकान्तनित्ये एकान्तानित्ये च वस्तुनि व्यवहारो व्यवस्था न घटत इत्यर्थः / तस्मादताभ्यां स्थानाभ्या स्वीकृताभ्यामनाचार जानीयात् // 3 // __ भावार्थ-उक्त दोनों पक्षों के एकान्त मानने से व्यवहार क्रियाओ का सर्वथा उच्छेद हो जाता है क्योंकि जब सर्व पदार्थ एकान्त नित्यरूप स्वीकार किये जाये तब जो नूतन वा पुरातन पदार्थों का पर्याय देखने में आता है वह सर्वथा उच्छेद हो जायगा। तथा किसीभीपदार्थको व्यवहार पक्ष में उत्पाद और व्यय धर्म वाला नहीं कहा जासकेगा / जव पदार्थों का उत्पाद और व्यय धर्म सर्वथा न रहा तव पदार्थ केवल अच्युतानुत्पन्नस्थिरैक स्वभाव वाले सिद्ध हो जायेगे। परन्तु देखने में ऐसे आते नहीं है। अतएव एकान्त नित्य मानने पर व्यवहार पक्ष का उच्छेद होजाता है। यदि एकान्त अनित्यता ग्रहण की जाए तब भी वह पक्ष युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि जब पदार्थ एकान्त अनित्यता ही धारण किये हुए हैं, तव भविप्यत् काल के लिये जो घट, पट, धन धान्यादि का लोग संग्रह करते हैं वे अनर्थक सिद्ध होंगे। यदि पदार्थ क्षणविनश्वर धर्म वाले हैं तब वह किस प्रकार संगृहीत किये हुए स्थिर रह सकेगे? परन्तु व्यवहार पक्ष में देखा जाता है कि-लोग व्यवहार पक्ष के आथित होकर उक्त पदार्थों का संग्रह अवश्यमेव करते हैं, अतएव एकान्त अनित्यता स्वीकार करने पर भी व्यवहार में विरोध आता है। इसलिये जैन-दर्शन ने एकान्त पक्ष के मानने का निषेध किया है / परन्तु जब हम स्याद्वाद के आश्रित होकर नित्य और अनित्य पर विचार करते है तव दोनों पक्ष युक्तियुक्त सिद्ध हो जाते हैं जैसे कि जब हम पदार्थों के सामान्य धर्म के आश्रित होकर विचार करते हैं तब पदार्थ नित्यरूपत्त्व धारण करलेते हैं अर्थात् पदार्थों के नित्य धर्म मानने में कोई आपत्ति उपस्थित नहीं होती। क्योंकि सामान्य धर्म पदार्थों में नित्य रूप से रहता है तथा जब हम पदार्थों के विशेष रूप धर्म पर विचार करते हैं तब प्रत्येक पदार्थ की अनित्यता देखी जाती है क्यों कि विशेष अंश के ग्रहण करने से