________________ ( 216 ) 1 मनोदुष्प्रणिधान-सामायिक व्रत धारण करके मनोयोग को दुष्ट धारण करना अर्थात् मन द्वारा सांसारिक सावध कार्यों का अनुचिंतन करना तथा पाप कर्मों का अनुचिंतन करते रहना यह पहला अतिचार है २वाग्दुष्प्रणिधान-वचन योग का अकुशल भाव में प्रयोग करना अर्थात् कठोर और हिंसक वचन को प्रयोग में लाना यह दूसरा अतिचार है।' ___3 कायदुष्पणिधान-काययोग को सम्यग्तया धारण न करना अर्थात् सामायिक काल में विना प्रत्युपेक्षित किये यत्र तत्र बैठ जाना तथा' भूमिभाग को सम्यग्तया प्रत्युपेक्षित नःकरना यह तीसरा अतिचार है। 4 स्मृतिप्रकरण-सामायिक काल वा सामायिक की स्मृति का न करना / जैसेकि-क्या सामायिक का समय होगया है ? मैंने सामायिक की है वा नहीं ? क्या मैंने सामायिक पार ली है अथवा नहीं ? इत्यादि यह 'चतुर्थ अतिचार है। ५अनवस्थितकरण सामायिक का काल विना पूर्ण हुए सामायिक कोपार लेना तथा सामायिक न तो समय पर करना और नाही. उसकेकाल को पूर्ण करना यह पांचवां अतिचार है। उक्त पांचों दोषों को छोड़कर दोनों समय शुद्ध सामायिक करनीचाहिए। शास्त्रकार कहते हैं कि-यदि शुद्ध भावों से एक भी सामायिक हो जाए तो श्रात्मा संसार चक्र से पृथक् होने के मार्ग पर आरूढ़ होजाता हैं। नवें सामायिक व्रत के पश्चात् 'दशवे देशावकाशिक व्रत का वर्णन इस प्रकार किया गया है। देशावकाशिक द्वितीय शिक्षावत है / वास्तव में यह व्रत छठे व्रत काही अंशरूप है। क्योंकि-छठे व्रत में यावजीव पर्यन्त छः दिशाओं का परिमाण किया जाता है, परन्तु उस परिमाण को संक्षेप करना इस व्रत का मुख्योद्देश है / जैसेकि-कल्पना करो, किसी ने चारों दिशाओं में सौ सौ योजन पर्यन्त गमन करना निश्चय किया हुअा है, परन्तु प्रतिदिन जाने का काम नहीं पड़ता तव नित्यंप्रति यावन्मात्र काम पड़ता हो तावन्मात्र परिमाण में क्षेत्र रख लेना जैसकि-आज मैं इस नगर से चार कोस के उपरान्त चारों ओर नहीं जाऊँगा इत्यादि। ऐसा करने से परिमाण के क्षेत्र में उसका सम्बर भाव हो जाता है तथा परिमाण करते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि-क्या मैंने नहीं जाना ? वा किसी और को प्रेषण नहीं करना तथा परिमाण के क्षेत्र से उपरान्त क्रय विक्रय करना वा नहीं करना ? पत्रादि' पठन करने हैं या नहीं? इत्यादि बातों का परिमाण करते समय विवेक कर लेना चाहिए / इस शिक्षा