________________ (222 ) अइयारा जाणियव्या न समायस्यिव्वा तंजहा-इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पाओगे कामभोगासंसप्पाओगे। उपासकदशाङ्क सूत्र अ.॥ 1. भावार्थ-बारहवें व्रत के पश्चात् श्रावक को अपश्चिम मारणांतिक संलेखना जोषणाराधना व्रत के भी पांच अतिचार जानने चाहिएं, किन्तु आसेवन न करने चाहिएं / जैसेकि-जब अनशन व्रत धारण कर लिया हो तब यह आशा करना कि-मर कर अमात्य वा इभ्य श्रेष्ठादि होजाऊँ 1 तथा मर कर देवता बन जाऊँ 2 तथा जीवित ही रहूं। क्योंकि-मेरी यशोकीर्ति अब अत्यन्त हो रही है 3 वा यशोकीर्ति तो हुई नहीं इसलिये अब शीघ्र मृत होजाऊँ. तो अच्छा है 4 अथवा मर कर देवता वा मनुष्यों के मुझे काम भोय उपलब्ध , हो जायँगे 56 सो उक्त पांचों अतिचारों को छोड़कर शुद्ध अनशन व्रत के द्वारा आराधना करनी चाहिए। जब श्रमणोपासक श्रावक के द्वादश व्रतों की यथाशक्ति आराधना करले फिर उसको योग्य है कि श्रमणोपासक की एकादश एडिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) धारण करे। जिनका सविस्तर स्वरूप दशाश्रुत स्कंध सूत्र के ५वें अध्ययन में वर्णित हैं। इसी का नाम आगारचरित्र धर्म है। इस धर्म की सम्यगतया आराधना करता हुआ आत्मा कर्मों के बंधन से छूटकर मोक्षा प्राप्त करता है / जिन आत्माओं की सर्व वृत्तिरूप मुनिधर्म ग्रहण करने की शक्ति न हो उन को योग्य है कि-वे गृहस्थ धर्म के द्वारा अपना कल्याण करें। इति श्री जैनतत्त्वकलिकाविकासे विशेषगृहस्थधर्मस्वरूपवर्णनामिका पंचमी कलिका समाप्त अथ षष्ठी कलिका / अस्तिकायधर्म-अस्तमः-प्रदेशास्तेषा कायो-राशिरस्तिकाय: धर्मों- गतिपयाँके जीवपुद्गलयो रणादित्यस्तिकायधर्मः // 10 // भावार्थ-अस्ति प्रदेशों का नाम है, काय-उन की राशि का नाम है, अर्थात् जो प्रदेशों का समूह है, उसी का नाम धर्मास्तिकाय है। क्योंकि जो द्रव्य सप्रदेशी है वह काय के नाम से कहा जाता है / फिर उस द्रव्य का जो खाभाविक लक्षण वा गुण है,उस गुण की अपेक्षा उस द्रव्य की वही नाम संज्ञा बन जाती है। जब द्रब्य लक्षण और पर्याय से युक्त होता है तब व्यवहार पक्ष मैं वह नाना प्रकार की क्रियाएँ करता दीख पड़ता है। इसका मुख्य कारण यह भी है कि जैनमत च्यार्थिक नय के मत से प्रत्येक द्रव्य को अनादि अनंत