Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
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Page 234
________________ ( 213 ) स्वच्छ और सुखप्रद है, उसी मार्ग के समीप वनस्पति तथा घास से युक्त दूसरा उपमार्ग हो तो फिर वह गृहस्थ क्यों उस राजमार्ग को छोड़ कर उपमार्ग में चलने लग पड़े ? कदापि नहीं। बस इसी का नाम अनर्थदंड है, क्योंकि उपमार्ग पर चलने से जो वनस्पतिकाय आदि जीवों की हिंसा हुई है वह हिंसा अनर्थ रूप ही है। इसी प्रकार अन्य विषयों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। शास्त्रकार महर्पियों ने अनर्थदंड के मुख्यतया चार भेद प्रतिपादन किये हैं, जैसेकि अपध्यान 1 पापोपदेश 2 हिंसाप्रदान 3 प्रमादाचरितं 4 1 अपध्यान अनर्थदंड-आर्तध्यान और रौद्रध्यान न करना चाहिए क्योंकि जब सुख वा दुःख कर्माधान माना जाता है तो फिर फल की असिद्धि में चिंता वा शोक क्यों ? क्योंकि-जो कर्म बांधा गया है उस कर्म ने अवश्यमेव उदय होकर फल देना है / सो इस प्रकार की भावनाओं से चिंता चा रौद्रध्यान दूर कर देना चाहिए। 2 पापोपदेश-अपने से भिन्न अन्य प्राणियों को पापकर्म का उपदेश करना / जैसे कि तुम अमुक हिंसक कर्म अमुक रीति से करो।। 3 हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड-जिन पदार्थों के देने से हिंसक क्रियाश्रो की निष्पत्ति होवे उन पदार्थों का दान करना, यह अनर्थदण्ड है / जैसेकिशस्त्र और अस्त्रों का दान करना तथा मूशल वा वाहन अथवा यानादि पदार्थों का दान करना / 4 प्रमादाचरण अनर्थदण्ड-धर्म क्रियाओं के करने में तो आलस्य किया जाता है, परन्तु नृत्यकलादि के देखने में आलस्य का नाम मात्र भी नहीं इस का नाम प्रमादाचरण अनर्थ दण्ड है तथा यावन्मान धर्म से प्रतिकूलें क्रियाएं हैं जिन से संसार चक्र में विशेष परिभ्रमण होता हो उसी का नाम प्रमादाचरण है / शब्द, रूप, गंध, रस, और स्पर्श इन के भोगने की अत्यन्त इच्छा और उन के (भोगने के लिये ही पुरुपार्थ करते रहना उसे प्रमादाचरण दण्ड कहते हैं। ___ इस गुण व्रत की रक्षा के लिये शास्त्रकारों ने पांच अतिचार प्रतिपादन किये हैं जैसेकि तयाणान्तरं चणं अणट्ठादण्ड वेरमणस्स समणोवासएणं पंचइयारा 'जाणियव्या न समायरियव्वा तंजहा-कंदप्पे कुक्कइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उचभोग परिभोगाइरित्ते // 8 // भावार्थ-सातवे उपभोग और परिभोग गुणवत के पश्चात् आठवें

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