________________ हो जाने से प्राचार्य फिर गच्छ की सारणा वारणादि क्रियाएँ सुखपूर्वक कर सकेगा 3 फिर अहंकार भाव को छोड़ कर दीक्षा गुरु वा श्रुत गुरु तथा दीक्षा में बड़ा उनकी विनय भक्ति करने वाला हो जैसे कि-जव उन का पधारणा होवे तव उनको आते हुए देखकर अभ्युत्थानादि सम्यग् रीति से करना चाहिए फिर श्राहार वा औषधि तथा उनकी इच्छानुसार उपाधि आदि के द्वारा उनका सत्कार करना चाहिए / सारांश इस का इतना ही है कि-अंहकार भाव से सर्वथा रहित हों। गुरुओं की विधिपूर्वक पर्युपासना करनी चाहिये यदि ऐसे कहा जाए कि-गुरु पंचम साधु पदमें है और शिष्य तृतीय श्राचार्य पदमें है तो फिर वह तृतीय पदवाला पंचम पदकी पर्युपासना किस प्रकार करसकता है ? इसका समाधान यह है कि-जैनमत का मुख्य विनयधर्म है अतएव सिद्धान्त में लिखा है कि-जहाहि अग्गि जलणं नमसे / नाणाहुइ मंत्र पयाभिसित्तं एवायरियं उचिट्ठइज्जा अणंत नाणोवगोविसतो (दशवकालिक सूत्र० अ. 6 उद्देश 1 गाथा 11) अर्थ-जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि को नमस्कार करता है तथा नाना प्रकार आहुति, और मंत्र पदों से अग्नि को अभिसिक्त करता है उसी प्रकार शिप्य श्राचार्य (गुरु) की अनंत ज्ञानके उत्पन्न होजाने पर भी भक्ति और विनय करे तथा जिसप्रकार अग्निहोत्रीपुरुष सदैव अग्नि के ही पास रहता है उसी प्रकार शिष्य गुरुकुलवासी रहे, तथा जिस प्रकार राज्य अवस्था के मिलजाने पर फिर वह राजकुमार अपने मातापिता की विनय करता है ठीक उसीप्रकार आचार्य पदके मिलजाने पर दीक्षावृद्धों की पर्युपासना करतारहे क्योंकि-श्राचार्य पद केवल गच्छवासी साधु-और साध्वियों की तथा श्रावक वा श्राविकाओं की रक्षा करनेके लिये ही होता है परन्तु विनय भक्ति के व्यवच्छिन्न करने के लिये नहीं क्योंकि-श्राचार्यका कर्तव्य है कि अपनी पवित्र आज्ञा द्वारा संघसेवा करता रहे और विनय धर्म को कदापि न छोड़े इसीलिये सूत्र में प्रतिपादन किया है कि प्राचार्य गुरु पर्युपासना करता रहे क्योंकि आज्ञा प्रदान करना कुछ और वात . है गुरु भक्ति करना कुछ और वात है सोयही संग्रहपरिज्ञा नामक संपत् का चतुर्थ भेद है इस प्रकार आठ प्रकार की संपत् का वर्णन किये जाने पर भव चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति विषय सूत्रकार प्रतिपादन करते है जिस का आदिम सूत्र निम्न प्रकार से है : आयरिश्रो अंतेवासीएमाए चउनिहाए विणयपडिवत्तीएविणइत्ता