________________ ( 130 ) जंपिवत्थं चपायंच, कंबलं पायपुंछणं / तंपिसंजमलजटा, धारंति परिहरंतिय // न सोपरिग्रहोवुत्तो, नायपुत्तेणताइणा / मुच्छापरिग्गहो वुत्तो इइवुत्तंमहेसिणा / / अर्थ-वस्त्र और पात्र, कंबल वा पादपुंछन यह सब संयम की लज्जा केलिये धारण किये जाते हैं और पहिरे जाते हैं / इन सवकोश्री भगवान् महावीर स्वामी ने परिग्रह नहीं कहा है किन्तु वस्तुओं पर जोमूछो भाव हैमहर्षियों ने उसी को परिग्रह कहा है / अतएव मन, वचन और काय तथा करना, कराना और अनुमोदना तीनों योग और तीनों करणों से उक्त महाव्रतकी शुद्ध पालना करनी चाहिए / साथ ही इसकी भावनाओं से पुनः 2 अनुवृत्ति करनी चाहिए जैसेकि सो इंदिय रागोवरई, चक्खिदिय रागोवरई, घाणिदिय रागोवरई, जिभिदिय रागोवरई, फासिदिय रागो वरई // अर्थ-पंचम महावत की रक्षा के लिये निम्नलिखितभावना विचारणीय हैं जैसेकि 1 श्रोतेन्द्रियरागोपरति-कानों में प्रिय और सुखर शब्द सुनाई पड़ते हों तो उन शब्दों को सुनकर अन्तःकरण में राग उत्पन्न न करे / एवं यदि प्रतिकूल, अप्रिय, आक्रोश, परुष और भयानक शब्द सुनने में आते हों तो उन शब्दों के कहने वालों पर द्वेष भी न करे। जिस प्रकार इन शब्दों का श्रोतेन्द्रिय में आने का खभाव है उसी प्रकार इन शब्दों की उपेक्षा करना भी मेरा खभाव है। ऐसा भाव सदा बनाए रखे। जब इस प्रकार के भाव वने रहेंगे तव हर्प वा चिन्ता और मन में मलिन भाव कदापि उत्पन्न नहीं होंगे। 2 चक्षुरिन्द्रियरागोपरति-जिस प्रकार श्रोतेन्द्रिय में शब्द के परमाणु प्रविष्ट होते हैं ठीक उसी प्रकार चचुरिन्द्रिय में रूप के परमाणु आजाते है। जव मनोऽनुकूल प्रिय और सौंदर्य के परमाणु चक्षुरिन्द्रिय में आजावेतवराग उत्पन्न न करना चाहिए / एवं यदि भय वा घृणा के उत्पन्न करने वाला रूप आंखों के सामने आ जावे तब द्वेष भी न करना चाहिए / 3 घ्राणेन्द्रियरागोपरति-जव घ्राणेन्द्रिय (नासिका) में सुगंध के परमाणु अा जावें तब राग उत्पन्न न करना चाहिए / एवं यदिदुर्गध के परमाणु भाजावे तब मन को विचलित भी न करना चाहिए। 4 जिह्वन्द्रिय रागोपरति-यदि भोजन में सरस और प्रिय तथा सव